कानूनी आलेख

 नारी नहीं है बेचारी



       दुष्कर्म आज ही नहीं सदियों से नारी जीवन के लिए त्रासदी रहा है .कभी इक्का-दुक्का ही सुनाई पड़ने वाली ये घटनाएँ आज सूचना-संचार क्रांति के कारण एक सुनामी की तरह नज़र आ रही हैं और नारी जीवन पर बरपाये कहर का वास्तविक परिदृश्य दिखा रही हैं .
भारतीय दंड सहिंता में दुष्कर्म ये है -
भारतीय दंड संहिता १८६० का अध्याय १६ का उप-अध्याय ''यौन अपराध ''से सम्बंधित है जिसमे धारा ३७५ कहती है-
Central Government Act
Section 375 in The Indian Penal Code, 1860
375. Rape.-- A man is said to commit" rape" who, except in the case hereinafter excepted, has sexual intercourse with a woman under circumstances falling under any of the six following descriptions:-
First.- Against her will.
Secondly.- Without her consent.
Thirdly.- With her consent, when her consent has been obtained by putting her or any person in whom she is interested in fear of death or of hurt.
Fourthly.- With her consent, when the man knows that he is not her husband, and that her consent is given because she believes that he is another man to whom she is or believes herself to be lawfully married.
Fifthly.- With her consent, when, at the time of giving such consent, by reason of unsoundness of mind or intoxication or the administration by him personally or through another of any stupefying or unwholesome substance, she is unable to understand the nature and consequences of that to which she gives consent.
Sixthly.- With or without her consent, when she is under sixteen years of age.
Explanation.- Penetration is sufficient to constitute the sexual intercourse necessary to the offence of rape.
Exception.- Sexual intercourse by a man with his own wife, the wife not being under fifteen years of age, is not rape.
      ये आंकड़े इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि आज ये घटनाएँ किस कदर नारी जीवन को गहरे अंधकार में धकेल रही हैं -
     अश्लीलता का असर -
राज्य                २०१२              २०१३
आंध्र प्रदेश          २८                  २३४
केरल                 १४७                १७७
उत्तर प्रदेश         २६                  १५९
महाराष्ट्र            ७६                  १२२
असम                ०                    १११
भारत               ५८९                  १२०३
      -सूचना प्रोद्योगिकी अधिनियम के तहत दर्ज मामले [पोर्नोग्राफी के चलते जहाँ महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा बढ़ रही है वहीं मासूम भी इसके दुष्प्रभाव से बचे हुए नहीं हैं .आंकड़े लोकसभा ]


       और ये हैं कुछ गंभीर मामले -
१- दामिनी गैंगरेप केस -१६ दिसंबर २०१२
२-ग्वालियर में महिला जज द्वारा मध्य प्रदेश हाईकोर्ट जज पर यौन उत्पीड़न का आरोप
३- विशाखापट्नम में नौसेना में महिला अफसर [सब लेफ्टिनेंट महिला अफसर ]द्वारा कमांडर रैंक के अफसर पर   यौन प्रताड़ना का आरोप
४- शामली जिले में ९० वर्षीय महिला से रिश्ते के पौत्र द्वारा रेप
५- बदायूं  में दो बहनों के साथ बलात्कार के बाद हत्या
६- बंगलुरु में शहर के एक नामी गिरामी स्कूल में एक छह साल की बच्ची के साथ बलात्कार
७- बंगलुरु में आर्मी एविएशन कॉर्प्स में तैनात एक महिला अधिकारी की इज़्ज़त लूटने का प्रयास .
         ये तो चंद घटनाएँ हैं मात्र उदाहरण उस अभिशाप का जो नारी जीवन को मर्मान्तक ,ह्रदय विदारक चोट देता है किन्तु ये समाज और ये पुरुष जाति इस घटना को मात्र संवाद सहानुभूति तक ही सीमित कर देती है .गावों में जहाँ दुष्कर्मी को कभी पांच जूते मारकर व् कभी गधे पर मुंह काला करके गावं में घुमाने तो कभी कुछ रुपयों का जुर्माने की सजा दी जाकर बरी कर दिया जाता है वहीँ इस तरह की घटना पर रक्षा मंत्री /वित्त मंत्री श्री अरुण जेटली जी द्वारा 'एक छोटी सी घटना ''जैसी संवेदना हीन प्रतिक्रिया दी जाती है .
      किन्तु जैसे कि सहानुभूति कुछ देर के लिए दर्द को भुला तो सकती है खत्म नहीं कर सकती वैसे ही ऐसे में यदि इस घटना पर नारी को सहानुभूति मिल भी जाये तो उसकी अंतहीन पीड़ा का खात्मा नहीं हो सकता उसे इस सम्बन्ध में स्वयं को मजबूत करना होगा और इस ज़ुल्म के खिलाफ खड़ा होना ही होगा .


नारी नहीं है बेचारी 
     साक्षी नाम की १५ वर्षीय लड़की और उत्तर प्रदेश का सी.ओ.स्तर का अधिकारी अमरजीत शाही ,कोई सोच भी नहीं सकता था कि एक १५ वर्षीय नाजुक कोमल सी लड़की उसका मुकाबला कर पायेगी पर उसने किया और अपना नाम तक नहीं बदला क्योंकि उसका मानना है कि मुजरिम वह नहीं उसका उत्पीड़न करने वाला  है और उसी की हिम्मत का परिणाम है कि १४ अगस्त को शाही को अपहरण ,बलात्कार और आतंकित करने के जुर्म में दोषी पाया गया और तीन दिन बाद उसे १० साल की सख्त कारावास और ६५,००० रूपये का अर्थ दंड भरने की  सजा सुनाई गयी.
    शामली में ९० वर्षीय वृद्धा ने कोर्ट में रेप की दास्तान बयान की और उसके दुष्कर्मी को १० साल का कारावास मिला .

        बंगलुरु में महिला अधिकारी की इज़्ज़त लूटने के प्रयास में जवान बर्खास्त .
   कंकरखेड़ा मेरठ की आशा कहती हैं कि महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों को रोकने के लिए सिर्फ कानून से काम चलने वाला नहीं .कानून की कमी नहीं पर इसके लिए समाज को भूमिका निभानी होगी .लाडलो पर अंकुश लगाना होगा .
  नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार देश में २०१३ में दर्ज किये गए रेप के मामले में प्रत्येक १०० मामलों में ९५ दोषी व्यक्ति पीड़िताओं के परिचित ही थे .अभी हाल ही में घटित लखनऊ निर्भया गैंगरेप में भी दोषी मृतका का परिचित ही था .इसलिए ऐसे में महिलाओं की जिम्मेदारी  बनती है कि वे सतर्क रहे और संबंधों को एक सीमा में ही रखें .
      बच्चों की शिकायतों पर गौर करें और ज़रूरी कदम उठायें संबंधों को मात्र संबंध ही रहने  दें न कि अपने ऊपर बोझ बांयें  .
       सामाजिक रूप से बच्चों की और अपनी दोस्ती को घर के बाहर ही निभाने पर जोर दें और बच्चों से उनके दोस्तों के बारे में जानकारी  लेती रहें .
        यही  नहीं कानून ने भी इस संबंध में नारी का साथ निभाने में कोई कमी नहीं छोड़ी है और भले ही यह अपराध उन्हें   तोड़ने की लाख कोशिश करे किन्तु वे टूटें नहीं बल्कि इसका डटकर मुकाबला करें .

   आज यदि देखा जाये तो महिलाओं के लिए घर से बाहर जाकर काम करना ज़रूरी हो गया है और इसका एक परिणाम तो ये हुआ है कि स्त्री सशक्तिकरण के कार्य बढ़ गए है और स्त्री का आगे बढ़ने में भी तेज़ी आई है किन्तु इसके दुष्परिणाम भी कम नहीं हुए हैं जहाँ एक तरफ महिलाओं को कार्यस्थल के बाहर के लोगों से खतरा बना हुआ है वहीँ कार्यस्थल पर भी यौन शोषण को लेकर  उसे नित्य-प्रति नए खतरों का सामना करना पड़ता है .
कानून में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर पहले भी काफी सतर्कता बरती गयी हैं किन्तु फिर भी इन घटनाओं पर अंकुश लगाया जाना संभव  नहीं हो पाया है.इस सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय का ''विशाखा बनाम राजस्थान राज्य ए.आई.आर.१९९७ एस.सी.सी.३०११ ''का निर्णय विशेष महत्व रखता है इस केस में सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ ने महिलाओं के प्रति काम के स्थान में होने वाले यौन उत्पीडन को रोकने के लिए विस्तृत मार्गदर्शक सिद्धांत विहित किये हैं .न्यायालय ने यह कहा ''कि देश की वर्तमान सिविल विधियाँ या अपराधिक विधियाँ काम के स्थान पर महिलाओं के यौन शोषण से बचाने के लिए पर्याप्त संरक्षण प्रदान नहीं करती हैं और इसके लिए विधि बनाने में काफी समय लगेगा ;अतः जब तक विधान मंडल समुचित विधि नहीं बनाता है न्यायालय द्वारा विहित मार्गदर्शक सिद्धांत को लागू किया जायेगा .


न्यायालय ने ये भी निर्णय दिया कि ''प्रत्येक नियोक्ता या अन्य व्यक्तियों का यह कि काम के स्थान या अन्य स्थानों में चाहे प्राईवेट हो या पब्लिक ,श्रमजीवी महिलाओं के यौन उत्पीडन को रोकने के लिए समुचित उपाय करे .इस मामले में महिलाओं के अनु.१४,१९ और २१ में प्रदत्त मूल अधिकारों को लागू करने के लिए विशाखा नाम की एक गैर सरकारी संस्था ने लोकहित वाद न्यायालय में फाईल किया था .याचिका फाईल करने का तत्कालीन कारण राजस्थान राज्य में एक सामाजिक महिला कार्यकर्ता के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना थी .न्यायालय ने अपने निर्णय में निम्नलिखित मार्गदर्शक सिद्धांत विहित किये-

[१] सभी नियोक्ता या अन्य व्यक्ति जो काम के स्थान के प्रभारी हैं उन्हें  चाहे वे प्राईवेट क्षेत्र में हों या पब्लिक क्षेत्र में ,अपने सामान्य दायित्वों के होते हुए महिलाओं के प्रति यौन उत्पीडन को रोकने के लिए समुचित कदम उठाना चाहिए.

[अ] यौन उत्पीडन पर अभिव्यक्त रोक लगाना जिसमे निम्न बातें शामिल हैं - सम्बन्ध और प्रस्ताव,उसके लिए आगे बढ़ना ,यौन सम्बन्ध के लिए मांग या प्रार्थना करना ,यौन सम्बन्धी छींटाकशी करना ,अश्लील साहित्य या कोई अन्य शारीरिक मौखिक या यौन सम्बन्धी मौन आचरण को दिखाना आदि.
[बी]सरकारी या सार्वजानिक क्षेत्र के निकायों के आचरण और अनुशासन सम्बन्धी नियम [१] सभी नियोक्ता या अन्य व्यक्ति जो काम के स्थान के प्रभारी हैं उन्हें  चाहे वे प्राईवेट क्षेत्र में हों या पब्लिक क्षेत्र में ,अपने सामान्य दायित्वों के होते हुए महिलाओं के प्रति यौन उत्पीडन को रोकने के लिए समुचित कदम उठाना चाहिए.
[अ] यौन उत्पीडन पर अभिव्यक्त रोक लगाना जिसमे निम्न बातें शामिल हैं -शारीरिक सम्बन्ध और प्रस्ताव,उसके लिए आगे बढ़ना ,यौन सम्बन्ध के लिए मांग या प्रार्थना करना ,यौन सम्बन्धी  छींटाकशी करना ,अश्लील साहित्य या कोई अन्य शारीरिक मौखिक या यौन सम्बन्धी मौन आचरण को दिखाना आदि.
[बी]सरकारी या सार्वजानिक क्षेत्र के निकायों के आचरण और अनुशासन सम्बन्धी नियम या विनियमों में यौन उत्पीडन रोकने सम्बन्धी नियम शामिल किये जाने चाहिए और ऐसे नियमों में दोषी व्यक्तियों के लिए समुचित दंड का प्रावधान किया जाना चाहिए .
[स] प्राईवेट क्षेत्र के नियोक्ताओं के सम्बन्ध में औद्योगिक नियोजन [standing order  ]अधिनियम १९४६ के अधीन ऐसे निषेधों को शामिल किया जाना चाहिए.
[द] महिलाओं को काम,आराम,स्वास्थ्य और स्वास्थ्य विज्ञानं के सम्बन्ध में समुचित परिस्थितियों का प्रावधान होना चाहिए और यह सुनिश्चित किया  जाना चाहिए  कि महिलाओं को काम के स्थान में कोई विद्वेष पूर्ण वातावरण न हो उनके मन में ऐसा विश्वास करने का कारण हो कि वे नियोजन आदि के मामले में अलाभकारी स्थिति में हैं .

[२] जहाँ ऐसा आचरण भारतीय दंड सहिंता या किसी अन्य विधि के अधीन विशिष्ट अपराध होता हो तो नियोक्ता को विधि के अनुसार उसके विरुद्ध समुचित प्राधिकारी को शिकायत करके समुचित कार्यवाही प्रारंभ करनी चाहिए .

[३]यौन उत्पीडन की शिकार महिला को अपना या उत्पीडनकर्ता  का स्थानांतरण करवाने का विकल्प होना चाहिए.

न्यायालय ने कहा कि ''किसी वृत्ति ,व्यापर या पेशा के चलाने के लिए सुरक्षित काम का वातावरण होना चाहिए .''प्राण के अधिकार का तात्पर्य मानव गरिमा से जीवन जीना है ऐसी सुरक्षा और गरिमा की सुरक्षा को समुचित कानून द्वारा सुनिश्चित कराने तथा लागू करने का प्रमुख दायित्व विधान मंडल और कार्यपालिका का है किन्तु जब कभी न्यायालय के समक्ष अनु.३२ के अधीन महिलाओं के यौन उत्पीडन का मामला लाया जाता है तो उनके मूल अधिकारों की संरक्षा के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत विहित करना ,जब तक कि  समुचित विधान नहीं बनाये जाते उच्चतम न्यायालय का संविधानिक कर्त्तव्य है.
- -इसके साथ ही उच्चतम न्यायालय ने  दिल्ली डेमोक्रेटिक वर्किंग विमेंस फोरम बनाम भारत संघ [१९९५] एस.सी.१४ में पुलिस स्टेशन पर पीड़िता को विधिक सहायता की उपलब्धता की जानकारी दिया जाना ,पीड़ित व्यक्ति की पहचान गुप्त रखा जाना और आपराधिक क्षति प्रतिकर बोर्ड के गठन का प्रस्ताव रखा है .
-भारतीय दंड सहिंता की धारा ३७६ में विभिन्न प्रकार के बलात्कार के लिए कठोर कारावास जिसकी अवधि १० वर्ष से काम नहीं होगी किन्तु जो आजीवन तक हो सकेगी और जुर्माने का प्रावधान भी रखा गया है .
-महिलाओं की मदद के लिए विभिन्न तरह के और भी उपाय हैं -
-आज की  सबसे लोकप्रिय वेबसाइट फेसबुक पर महिलाओं की मदद के लिए पेज है -
helpnarishakti@yahoo.com
-राष्ट्रीय महिला आयोग से भी महिलाएं इस सम्बन्ध में संपर्क कर सकती हैं उसका नंबर है -
  011-23237166,23236988
-राष्ट्रीय महिला आयोग को शिकायत इस नंबर पर की जा सकती है -
 23219750
-दिल्ली निवासी महिलाएं दिल्ली राज्य महिला आयोग से इस नंबर पर संपर्क कर सकती हैं -
011 -23379150  ,23378044
-उत्तर प्रदेश की महिलाएं अपने राज्य के महिला आयोग से इस नंबर पर संपर्क कर सकती हैं -
0522 -2305870 और ईमेल आई डी है -up.mahilaayog@yahoo.com
     आज सरकार भी नारी सुरक्षा को लेकर प्रतिबद्ध है और उसकी यह प्रतिबद्धता दिखती है अब दुष्कर्म पीड़िताओं की मदद के लिए निर्भया केंद्र खुलेंगे जिसमे पीड़िताओं को २४ घंटे चिकित्सीय सहायता मिलेगी और जहाँ डाक्टर ,नर्स के अलावा वकील भी केन्द्रों पर मौजूद रहेंगे .यही नहीं अब सरकार गावों में खुले में शौच को भी इस समस्या से जोड़ रही है और मोदी जी ने स्वतंत्रता दिवस पर इस सम्बन्ध में त्वरित प्रबंध किये जाने के प्रति अपना दृढ संकल्प दिखाया है .
   अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने क्लिंटन फाउंडेशन के कार्यक्रम में कहा कि महिलाओं और लड़कियों में आर्थिक व् सामाजिक रूप से आगे बढ़ने की असीमित क्षमता है इसके लिए ज़रूरी है कि वे अपने निर्णय खुद लें और आज उन्हें दिखाना ही होगा कि ये कहर भी झेलकर वे आगे बढ़ती रहेंगी और इसका डटकर मुकाबला करती रहेंगी .

शालिनी कौशिक
  (एडवोकेट)


महिला और मुस्लिम विधि 


विधि भारती -शोध पत्रिका में प्रकाशित

भारतीय संविधान की राजभाषा हिंदी है और देश में हिंदी भाषी राज्यों या क्षेत्रों की बहुलता है भारत में निम्न राज्य हिंदी भाषी क्षेत्रों में आते हैं -बिहार ,छत्तीसगढ़ ,दिल्ली ,हरियाणा ,हिमाचल प्रदेश ,झारखण्ड ,मध्य-प्रदेश ,राजस्थान ,उत्तर प्रदेश व् उत्तराखंड ,इसी के साथ-साथ भारतीय संविधान का अनुच्छेद १४ सभी नागरिकों को समानता का अधिकार भी देता है जिसके चलते भारत का हर नागरिक समान है ,उसके साथ धार्मिक आधार पर कोई भी भेदभाव नहीं किया जाता है किन्तु भारत के संविधान का यह मौलिक अधिकार सभी धर्मों के व्यक्तिगत मामलों में मौन हैं और इसी लिए धर्मों के अंदरूनी भेदभाव पर इसका कोई प्रभाव नहीं है ,हिन्दू हो या मुस्लिम ,इन धर्मों में व्यक्तिगत रूप से कौनसी जाति को ऊँचा समझा जाता है और कौनसी जाति को नीचे इन पर हमारा संविधान मौन है ,ऐसे ही इन धर्मों में नारी की क्या स्थिति है इस पर भी संविधान का कोई अंकुश नहीं है वह केवल स्वतन्त्र रूप से नारी को अधिकार देकर इन धर्मों के बाहर उसकी स्थिति सुदृढ़ करने की कोशिश कर सकता है धर्मों को यह आदेश नहीं दे सकता कि ये भी उसे निरपेक्ष रूप से बराबर माने और इसी को देखते हुए सरकार द्वारा पुरानी परम्पराओं में ही आज तक उलझे हुए मुस्लिम समाज में निकृष्ट स्तर तक पहुंची महिला की स्थिति को सुधारने के लिए सबसे पहले इस समाज की तीन तलाक की प्रथा पर चोट पहुंचाकर उसकी स्थिति को सँभालने की चेष्टा की जा रही है ,
              भारत में ज्यादातर मुस्लिम हनफ़ी या सुन्नी हैं ,इसी के साथ-साथ मुस्लिम कानून की एक और संस्था शिया को मानने वाले मुस्लिम भी भारत में निवास करते हैं ,मुस्लिम शासन काल में इस्लामी कानून ही भारत का कानून था और व्यैक्तिक कानून को छोड़कर इसके सभी प्रावधान जैसे संविदा विधि ,दाण्डिक विधि ,अपकृत्य विधि आदि हिन्दुओं व् मुसलमानों पर एक समान लागू होते थे ,मुग़ल शासन काल में भारत में हनफ़ी इस्लामी विधि लागू रही जो ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के दौरान क्रमशः समाप्त हुई ,यद्यपि इस्लामिक दाण्डिक विधि कुछ आगे तक चली किन्तु 1960  में भारतीय दंड संहिता के अधिनियम के साथ समाप्त हो गयी ,
       भारत में मुसलमानो के संपत्ति अधिकार सूचीबद्ध नहीं हैं ,वह मुस्लिम कानून की दो संस्थाओं के तहत आते हैं -हनफ़ी और शिया ,हनफ़ी संस्था केवल उन रिश्तेदारों को वारिस के रूप में मानती है जिनका पुरुष के माध्यम से मृतक से सम्बन्ध होता है ,इसमें बेटे की बेटी ,बेटे का बेटा और माता-पिता आते हैं ,दूसरी ओर शिया संस्था ऐसा कोई भेदभाव नहीं करती इसका मतलब है जिन वारिसों का मृतक से सम्बन्ध महिलाओं के जरिये है ,उन्हें भी अपना लिया जाता है ,ऐसे ही सुन्नी संप्रदाय की मलिकी विचार पद्धति की किताब-अल-मुवता में मलिकी विचारधारा के सिद्धांत मिलते हैं ,इस विचार पद्धति की मुख्य विशेषता यह है कि परिवार के मुखिया की शक्ति स्त्रियों और बच्चों पर अत्यधिक होती है केवल इसी विचार पद्धति के अंतर्गत विवाहिता स्त्री अपनी संपत्ति की निरपेक्ष स्वामिनी नहीं होती है और पति की अनुमति के बिना अपनी संपत्ति का विक्रय दान नहीं कर सकती है किन्तु यह विचार पद्धति भारत में प्रचलित ही नहीं है इसलिए हिंदी भाषी क्षेत्रों की मुस्लिम महिलाओं के अधिकार इससे प्रभावित नहीं होते क्योंकि यह उत्तरी अफ्रीका ,मोरक्को स्पेन में प्रचलित है ,
      शिया और सुन्नी विधि दोनों में ही महिलाओं के अधिकार पृथक-पृथक हैं इसका अध्ययन हम निम्न शीर्षकों के अंतर्गत कर सकते हैं -
1 -मातृत्व -शिया विधि के अंतर्गत कुवांरी महिला द्वारा उत्पन्न संतान माँ विहीन मानी जाती है परन्तु विवाहित महिला यदि परपुरुषगमन द्वारा संतान उत्पन्न करती है तो वह उस संतान की माँ मानी जाएगी जबकि सुन्नी विधि के अंतर्गत जिस महिला को बच्चा पैदा होता है वह उसकी माँ होती है और कोई संतान माँ विहीन नहीं मानी जाती ,
2 -वलायत -सुन्नी विधि के अंतर्गत लड़के की सात वर्ष की आयु पूरी होने और लड़की के व्यस्क होने तक माँ अभिरक्षा की हक़दार होती है जबकि शिया विधि के अंतर्गत लड़के के दो साल का होने और लड़की के सात साल का होने तक माँ उनकी वली रहती है ,
3 -वृद्धि [औल ]का सिद्धांत -सुन्नी विधि के अंतर्गत वृद्धि [औल ] का सिद्धांत जिसके बाद यदि हिस्सेदार का कुल योग इकाई से अधिक होता है तो प्रत्येक हिस्सेदारों का अंश कम हो जाता है सभी हिस्सेदारों पर समान रूप से लागू होता है परन्तु शिया विधि के अंतर्गत वृद्धि [औल ] का सिद्धांत केवल पुत्रियों और बहनों के प्रति ही लागू होता है अर्थात यदि हिस्सेदारों का कुल योग इकाई से अधिक होता है तो केवल पुत्रियों व् बहनों का हिस्सा कम होता है ,
           मुस्लिम कानून के तहत विरासत के कानून काफी सख्त हैं ,उनकी विचारधारा के मुताबिक महिलाओं को पुरुष से आधी  तवज्जो मिलती है इसलिए बेटो को बेटी के हिस्से से दोगना मिलता है लेकिन बेटी को जो भी संपत्ति विरासत में मिलेगी ,उस पर उसका पूर्ण अधिकार होगा ,अगर कोई भाई नहीं है तो उसे आधा हिस्सा मिलेगा और वह अपनी मर्जी से कानूनी तौर पर उसका प्रबंधन ,नियंत्रण और निपटारा कर सकती है ,
          वह उन लोगों से भी गिफ्ट्स ले सकती है जिनसे वह संपत्ति हासिल करेगी ,यह विरोधाभासी है क्योंकि वह पुरुष के हिस्से का केवल एक तिहाई हिस्सा पा सकती है लेकिन बावजूद इसके बिना किसी परेशानी के तोहफे ले सकती है ,जब तक बेटी की शादी नहीं होती उसे माता-पिता के घर में रहने और सहायता पाने का अधिकार है लेकिन शादी के बाद की स्थिति भिन्न है ,
             मुस्लिम विधि में विवाह एक संस्था है ,यह संस्था मानव सभ्यता का आधार है ,कुरान में लिखा है कि ''हमने पुरुषों को स्त्रियों पर हाकिम [अधिकारी ]बनाकर भेजा है '' दूसरे शब्दों में मुस्लिम विधि में पत्नी की अधीनता स्वीकार की गयी है ,महत्वपूर्ण वाद अब्दुल कदीर बनाम सलीमन [1846 ] 8  इला० 149 में न्यायाधीश महमूद और न्यायाधीश मित्तर ने सबरुन्निशा के वाद में मुस्लिम विवाह को संविदात्मक दायित्व के रूप में बल दिया है और मुस्लिम विवाह को विक्रय संविदा के समान बताया है और यही विक्रय संविदा मुस्लिम विधि में महिला की स्थिति को न्यायाधीश महमूद के शब्दों में कुछ यूँ व्यक्त करती है -
''मुस्लिम विधि में मेहर वह धन है अथवा वह संपत्ति है जो पति द्वारा पत्नी को शादी के प्रतिफल के रूप में दिया जाता है अथवा देने का वचन दिया जाता है ,''
   इसी प्रकार न्यायाधीश मित्तर ने सबरुन्निशा के मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय का निर्णय देते हुए कहा कि -
''मुस्लिम विधि में विवाह विक्रय संविदा के समान एक सिविल संविदा है विक्रय में मूल्य के बदले संपत्ति का अंतरण होता है ,विवाह की संविदा में पत्नी संपत्ति और मेहर मूल्य होता है ,''
        इस प्रकार यदि हम एकतरफा रूप से देखें तो इस्लाम में महिला की स्थिति को संपत्ति समान ही पाएंगे किन्तु इसे पूर्ण स्थिति नहीं कहा जा सकता है क्योंकि जैसे कि संविदा में पक्षकारों की स्वतंत्र इच्छा व् सहमति आवश्यक है वैसे ही मुस्लिम विधि में विवाह के पक्षकारों की भी स्वतंत्र इच्छा व् सहमति आवश्यक है और इसलिए यहाँ स्त्री भी स्वतंत्र इच्छा व् सहमति के प्रयोग द्वारा ही विवाह संस्था में प्रवेश का अधिकार रखती है जैसे कि ''हसन बनाम कुट्टी जेनेवा '' में कहा गया कि विवाह में सहमति आवश्यक तत्व है और पिता की अनुमति व्यस्क पुत्री की सहमति नहीं ले सकती ,'' ऐसे ही ''एस मुहीदुद्दीन बनाम खतीजा बाई 1939  ,41 बम्बई लॉ रिपोर्टर 1020 के वाद में एक शाफ़ई [व्यस्क ] लड़की की सहमति के विरुद्ध पिता के द्वारा कार्यान्वित विवाह मान्य नहीं धारण किया गया ,इसी प्रकार ''अहमद उन्निसा बेगम बनाम अकबर शाह ए-आई-आर 1942 पेशावर 42 में कहा गया कि जहाँ विवाह के लिए सहमति न प्राप्त की गयी हो ,स्त्री की इच्छा के विरुद्ध विवाह की पूर्णावस्था विवाह को मान्य नहीं बना देगी ,''

      भारत में बाल विवाह अवरोध अधिनियम 1929 के द्वारा पुरुषों का 21  वर्ष से कम की अवस्था में और स्त्रियों का 18  वर्ष से कम की अवस्था में विवाह अपराध है किन्तु मुस्लिम विधि में उपर्युक्त अधिनियम के किसी प्रावधान का उल्लंघन होने पर भी विवाह शून्य  नहीं होता है और विशेष रूप से हिंदी भाषी राज्य उत्तर प्रदेश में इसका खुला उल्लंघन होता है क्योंकि शिया स्त्री के मामले में वयस्कता की आयु मासिक धर्म के साथ साथ शुरू हो जाती है और प्रत्यक्ष साक्ष्य के अभाव में पूर्वधारणा यह होती है कि मासिक धर्म 9 और 10 साल के उम्र में शुरू हो जाता है इसलिए यहाँ संविदा के नियम स्वतंत्र इच्छा व् सहमति का उल्लंघन होता है क्योंकि 9 या 10 साल की लड़की स्वतंत्र इच्छा व् सहमति नहीं रख सकती इसलिए यहाँ पिता की अनुमति से उसका विवाह होता है और इसे मान्य बनाने के लिए वयस्कता का विकल्प रखा गया है किन्तु यहाँ भी मुस्लिम महिला के साथ भेदभाव रखा गया है ,

      मुल्ला ,आप सिट 14 वां  संस्करण 1955 p 117 में मुल्ला का यह मत है कि वयस्कता का विकल्प यदि स्त्री द्वारा यौवनावस्था प्राप्त करते ही तुरंत अथवा शादी का ज्ञान न हो सकने की दशा में शादी की सूचना मिलते ही प्रयोग न किया गया तब यह अधिकार समाप्त हो जाता है लेकिन पुरुष के लिए यह अधिकार तब तक रहता है जब तक कि वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विवाह का अनुसमर्थन नहीं कर देता है उदाहरण के लिए सम्भोग द्वारा या मेहर का भुगतान करके ,
    धर्म में भिन्नता को लेकर भी मुस्लिम महिला भेदभाव की शिकार है ,वह किसी ऐसे पुरुष से विवाह नहीं कर सकती जो मुसलमान न हो ,चाहे वह किताबी हो या नहीं ,दैवी ग्रन्थ पर आधारित धर्म के अनुयायी पुरुष को 'किताबी 'और स्त्री को 'किताबिया ' कहते हैं जबकि सुन्नी मुसलमान पुरुष गैर मुस्लिम स्त्री से यदि वह किताबिया अर्थात ईसाई या यहूदी हो विवाह कर सकता है ,
     अब आते हैं तलाक के मुद्दे पर जो वर्तमान में सर्वाधिक विवाद का विषय है वह है तीन तलाक ,यूँ तलाक कहने का अधिकार मुस्लिम विधि में पुरुष को ही है और मुस्लिम विवाह संविदा है ये तो इन विधिवेत्ताओं की राय  से व् न्यायालयों के निर्णयों से स्पष्ट हो चुका है पर मजाक यहाँ ये है कि यहाँ बराबरी की बात कहकर भी बराबरी कहाँ दिखाई गयी है .मुस्लिम  विधि में जब निकाह के वक़्त प्रस्ताव व् स्वीकृति को महत्व दिया गया तो तलाक के समय केवल मर्द को ही तलाक कहने का अधिकार क्यों दिया गया .संविदा तो जब करने का अधिकार दोनों का है तो तोड़ने का अधिकार भी तो दोनों को ही मिलना चाहिए था लेकिन इनका तलाक के सम्बन्ध में कानून महिला व् पुरुष में भेद करता है और पुरुषों को अधिकार ज्यादा देता है और ये तीन तलाक जिस कानून के अन्तर्गत दिया जाता है वह है -तलाक -उल-बिद्दत -" तलाक - उल - बिददत को तलाक - उल - बैन के नाम से भी जाना जाता है. यह तलाक का निंदित या पापमय रूप है. विधि की कठोरता से बचने के लिए तलाक की यह अनियमित रीति ओमेदिया लोगों ने हिज्रा की दूसरी शताब्दी में जारी की थी. शाफई और हनफी विधियां तलाक - उल - बिददत को मान्यता देती हैं यघपि वे उसे पापमय समझते हैं. शिया और मलिकी विधियां तलाक के इस रूप को मान्यता ही नहीं देती. तलाक की यह रीति नीचे लिखी बातों की अपेक्षा करती है -
1- एक ही तुहर के दौरान किये गये तीन उच्चारण, चाहे ये उच्चारण एक ही वाक्य में हों-"जैसे - मैं तुम्हें तीन बार तलाक देता हूं. " अथवा चाहे ये उच्चारण तीन वाक्यों में हों जैसे -" मैं तुम्हें तलाक देता हूं, मैं तुम्हें तलाक देता हूं, मैं तुम्हें तलाक देता हूं. "
2-एक ही तुहर के दौरान किया गया एक ही उच्चारण, जिससे रद्द न हो सकने वाला विवाह विच्छेद का आशय साफ प्रकट हो :जैसे" मैं तुम्हें रद्द न हो सकने वाला तलाक देता हूं."
     पति की मृत्यु या तलाक होने पर भी सभी प्रयोजनों के लिए मुस्लिम विवाह का तुरंत विच्छेद नहीं हो जाता विच्छेद हो जाने पर भी वह कुछ प्रयोजनों के लिए इद्दत की अवधि तक प्रभावी रहता है ,''इद्दत ''वह अवधि है जिसमे जिस स्त्री के विवाह का पति की मृत्यु या तलाक द्वारा विच्छेद हो गया हो ,उसे एकांत में रहना और दूसरे पुरुष से विवाह न करना अनिवार्य है ,मुस्लिम विधि में जब कोई विवाह विवाह-विच्छेद या पति की मृत्यु के कारण विघटित हो जाता है तो स्त्री कुछ समय तक पुनः विवाह नहीं कर सकती है ,इस निश्चित समय को ''इद्दत '' कहा जाता है ,इद्दत का उद्देशय यह निश्चित करना होता है कि क्या स्त्री पति से गर्भवती है अथवा नहीं ,जिससे कि मृत्यु अथवा विवाह-विच्छेद के पश्चात् उत्पन्न हुई संतान की पैतृकता में भ्रम न पैदा हो ,साथ ही तलाक के मामले में इद्दत अवधि (करीब तीन महीने) के बाद रखरखाव का शुल्क उसके माता-पिता के पास वापस चला जाता है। लेकिन अगर महिला के बच्चे उसका सपोर्ट करने की स्थिति में हैं तो जिम्मेदारी उन पर आ जाती है।
       पति की मृत्यु के मामले में विधवा को (अगर बच्चे हैं) एक आठवां हिस्सा मिलेगा। अगर बच्चे नहीं हैं तो एक चौथाई हिस्सा मिलेगा। वहीं अगर मृतक की एक से ज्यादा पत्नियां हैं तो हिस्सा एक-सोलहवें तक घट सकता है।  पत्नी के रूप एक मुस्लिम महिला अपने पति से निर्वाह व्यय प्राप्त करने की अधिकारिणी होती है ,और शादी कायम रहते हुए चाहे मेहर के सम्बन्ध में कोई अनुबंध न भी किया गया हो उसे अपने पति के साथ रहने का अधिकार होता है और अपने अनन्य उपयोग के लिए एक कक्ष का ,उसे निषिद्ध आस्तियों के भीतर के अपने सम्बन्धियों के यहाँ जाने और उनका उसके यहाँ आने का अधिकार होता है इस प्रकार एक मुस्लिम महिला के पत्नी के रूप में निम्न अधिकार हैं -
1 -पति की सामर्थ्य को ध्यान में रखते हुए उससे निर्वाह व्यय की प्राप्ति ,यदि पत्नी आज्ञाकारिणी और व्यस्क है तो उसे इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता ,भले ही वह अपनी संपत्ति से अपना निर्वाह कर सकती हो ,यह अधिकार उसे तब तक प्राप्त रहता है जब तक कि विवाह-विच्छेद नहीं होता है ,
२ -एक से अधिक पत्नियां होने पर सभी से समान व्यवहार तथा पृथक शयन कक्ष ,
3 -अपना मेहर प्राप्त करने और भुगतान न किये जाने पर समागम से इंकार का अधिकार ,
4 -वर्ष में कम से कम एक बार अपने निषिद्ध आस्तियों के भीतर के सम्बन्धियों के यहाँ जाने और उनके उसके यहाँ आने और उसके माता -पिता और पूर्व पति से उत्पन्न बच्चों के उचित अंतराल से उसके यहाँ आने का अधिकार ,
५ -यदि पति उसी मकान में कोई रखैल उसके साथ रखे तो पति के साथ रहने से इंकार करने और ऐसे इंकार के होते हुए निर्वाह की अभ्यर्थना करने का अधिकार ,
6 -वह एक कक्ष के उपयोग के लिए ,जिसमे वह अपने पति के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति को आने न दे ,अधिकृत हो जाती है ,
       लेकिन ऐसा नहीं है कि ये अधिकार पत्नी को निर्बाध रूप से प्राप्त हो इन्हें पाने के लिए पत्नी के रूप में उन्हें कुछ कर्तव्यों को भी निभाना होगा जो कि निम्न हैं -
1 -उसके लिए दाम्पत्य निष्ठां का दृढ़ता से पालन आवश्यक है ,
2 -वह अपने स्वास्थ्य ,शिष्टता और स्थान का ध्यान रखते हुए पति को अपने साथ समागम करने देने के लिए बाध्य है ,
3 -वह पति की उचित आज्ञाओं का पालन करने के लिए बाध्य है ,
4 -पक्षकारों की सामाजिक स्थिति और स्थानीय प्रथा के अनुसार पर्दा करना पत्नी का कर्तव्य है ,
5 -वह मृत्यु या विवाह-विच्छेद होने पर इद्दत का पालन करने के लिए बाध्य है ,
      और इन्हें लेकर मुस्लिम विधि का ''तीन तलाक '' मुस्लिम महिलाओं के लिए जीवन में एक नश्तर के समान है ,नाग के काटने के समान है जिसका काटा कभी पानी नहीं मांगता ,साइनाइड जहर के समान है जिसका क्या स्वाद है उसे खाने वाला व्यक्ति कागज पेन्सिल लेकर लिखने की इच्छा लेकर उसे चाहकर  भी नहीं लिख पाता,ऐसा विनाशकारी प्रभाव रखने वाला शब्द ''तीन तलाक'' मुस्लिम महिलाओं के जीवन की त्रासदी है .अच्छी खासी चलती शादी-शुदा ज़िन्दगी एक क्षण में तहस-नहस हो जाती है .पति का तलाक-तलाक-तलाक शब्द का उच्चारण पत्नी के सुखी खुशहाल जीवन का अंत कर जाता है और कहीं कोई हाथ मदद को नहीं आ पाता क्योंकि मुस्लिम शरीयत कानून पति को ये इज़ाज़त देता है .कानून का जो मजाक मुस्लिम शरीयत कानून में उड़ाया गया है ऐसा किसी भी अन्य धर्म में नज़र नहीं आता .बराबरी का अधिकार देने की बात कर मुस्लिम धर्म में महिलाओं को निम्नतम स्तर पर उतार दिया गया है .मुस्लिम महिलाओं को मिले हुए मेहर के अधिकार की चर्चा उनके पुरुषों की बराबरी के रूप में की जाती है फिर निकाह के समय '' क़ुबूल है '' भी महिलाओं की ताकत के रूप में वर्णित किया जाता है किन्तु यदि हम गहनता से इन दोनों पहलुओं का विश्लेषण करें तो ये दोनों ही इसे संविदा का रूप दे देते हैं .और मुस्लिम विधि के बड़े बड़े जानकार इस धर्म की विवाह संस्था को संविदा का ही नाम देते हैं .बेली के सार-संग्रह में विवाह की परिभाषा स्त्री-पुरुष के समागम को वैध बनाने और संतान उत्पन्न करने के प्रयोजन के लिए की गयी संविदा के रूप में की गयी है .[BAILLIE : डाइजेस्ट ,पेज ९४.]
          आमतौर पर इस सबको ही लेकर लोगों की धारणा यह है कि इस्लाम में महिलाओं को अत्यधिक अत्याचार और शोषण सहना पड़ता है – लेकिन क्या हकीक़त में ऐसा है ? क्या लाखों की तादाद में मुसलमान इतने दमनकारी हैं या फिर ये गलत धारणाएं पक्षपाती मीडिया ने पैदा की हैं ? इस्लाम को लेकर यह गलतफहमी है और फैलाई जाती है कि इस्लाम में औरत को कमतर समझा जाता है। सच्चाई इसके उलट है। हम इस्लाम का अध्ययन करें तो पता चलता है कि इस्लाम ने महिला को चौदह सौ साल पहले वह मुकाम दिया है जो आज के कानून दां भी उसे नहीं दे पाए। इस्लाम लोकतान्त्रिक मज़हब है और इसमें औरतों को बराबरी के जितने अधिकार दिए गए हैं उतने किसी भी धर्म में नहीं हैं।इस्लाम के अलावा कोई ऐसा दीन, धर्म या जीवन दर्शन नहीं है जिसने औरत को उसका पूरा जायज़ अधिकार और न्याय दिया हो और उसके नारित्व की सुरक्षा की हो। इंसानी हैसियत से दायित्वों और कर्तव्यों के मामले में औरत मर्द के बराबर है। माँ की हैसियत ये बताई गयी है कि उसके पैरों तले जन्नत है।
1930 में, एनी बेसेंट ने कहा, “ईसाई इंग्लैंड में संपत्ति में महिला के अधिकार को केवल बीस वर्ष पहले ही मान्यता दी गई है, जबकि इस्लाम में हमेशा से इस अधिकार को दिया गया है। यह कहना बेहद गलत है कि इस्लाम उपदेश देता है कि महिलाओं में कोई आत्मा नहीं है ।” (जीवन और मोहम्मद की शिक्षाएं, 1932)
डॉक्टर लिसा (अमेरिकी नव मुस्लिम महिला)मैंने तो जिस धर्म (इस्लाम) को स्वीकार किया है वह स्त्री को पुरुष से अधिक अधिकार देता है।
डॉक्टर लिसा एक अमेरिकी महिला डॉक्टर हैं, लगभग तीस साल पहले मुसलमान हुई हैं और मुबल्लिगा हैं, यह इस्लाम में महिलाओं के अधिकार के संबंध में लगने वाले आरोपों का दान्दान शिकन जवाब देने के संबंध में काफी प्रसिद्ध हैं।
उनके एक व्याख्यान के अंत में उनसे सवाल किया गया कि –
“आप ने एक ऐसा धर्म क्यों स्वीकार किया जो औरत को मर्द से कम अधिकार देता है”?
*उन्होंने जवाब में कहा कि –
“मैंने तो जिस धर्म को स्वीकार किया है वह स्त्री को पुरुष से अधिक अधिकार देता है”,
पूछने वाले ने पूछा वो कैसे?
डॉक्टर साहिबा ने कहा “सिर्फ दो उदाहरण से समझ लीजिए”,
– पहली यह कि “इस्लाम ने मुझे चिंता आजीविका से मुक्त रखा है यह मेरे पति की जिम्मेदारी है कि वह मेरे सारे खर्च पूरे करे”, चिंता आजीविका से बड़ा कोई सांसारिक बोझ नहीं और अल्लाह हम महिलाओं को इससे पूरी तरह से मुक्ति रखा है, शादी से पहले यह हमारे पिता की जिम्मेदारी है और शादी के बाद हमारे पति की।
– दूसरा उदाहरण यह है कि “अगर मेरी संपत्ति में निवेश या संपत्ति आदि हो तो इस्लाम कहता है कि यह सिर्फ तुम्हारा है तुम्हारे पति का इसमें कोई हिस्सा नहीं है”,
जबकि मेरे पति को इस्लाम कहता है कि “जो आप ने कमा और बचा रखा है यह सिर्फ तुम्हारा बल्कि तुम्हारी पत्नी का भी है अगर आप ने उसका यह हक़ अदा न किया तो मैं तुम्हें देख लूंगा।”
      इस्लाम में औरतों को निम्न अधिकार भी दिए गए हैं -
1 -इस्लाम में औरतों को संपत्ति का अधिकार -औरत को बेटी के रूप में पिता की जायदाद और बीवी के रूप में पति की जायदाद का हिस्सेदार बनाया गया। यानी उसे साढ़े चौदह सौ साल पहले ही संपत्ति में अधिकार दे दिया गया।
2 -औरतों को अपनी पहचान बनाये रखने का सम्मान-इस्लाम ने औरतों को अपनी पहचान बनाये रखने का भी सम्मान किया है इसलिए जब अन्य महज़ब में शादी के बाद नाम बदलने की इज़ाज़त है ,इस्लाम में औरत शादी के बाद भी अपना नाम बरक़रार रख सकती है। उन्होंने कहा कि अगर इसके बाद भी लोग सोचते हैं कि हम लोग अपनी औरतों को दबा कर रखते हैं तो हमें इस पर सोचना चाहिए।
3 -तलाक़ (तलाक़े खुला) लेने का अधिकार-इस्लाम के पहले दुखी और कष्टपूर्ण वैवाहिक जीवन को समाप्त करके पति पत्नी के अलग अलग सुखी जीवन जीने का कोई वैज्ञानिक उपाय किसी मज़हब में नहीं था। जहाँ मर्द को बुरी औरत से निजात के लिए तलाक का अधिकार दिया है। वही औरत को भी “खुला” का अधिकार प्रदान किया गया है। जिसका प्रयोग कर वो ग़लत मर्द से छुटकारा पाने का आसान रास्ता दे दिया गया।इसलिए यह कहना गलत है कि इस्लाम में औरतों के साथ बराबरी नहीं है इस्लाम में औरतों को तलाके खुला लेने का अधिकार देकर उसकी स्थिति को मर्द से बराबरी पर लाया गया है ,
 4 -समान पुरस्कार और बराबर जवाबदेही– इस्लाम में आदमी और औरत एक ही अल्लाह को मानते हैं, उसी की इबादत करते हैं, एक ही किताब पर ईमान लाते हैं | अल्लाह सभी इंसानों को एक जैसी कसौटी पर तौलता है वह भेदभाव नहीं करता।
    अगर हम दूसरे  मज़हबों से इस्लाम की तुलना करेंगे तब हम देखेंगे की इस्लाम दोनों लिंगों के बीच भी न्याय करता है | उदाहरण के लिए इस्लाम इस बात को ख़ारिज करता है कि माँ हव्वा हराम पेड़ से फल तोड़ कर खाने के लिए ज्यादा ज़िम्मेदार हैं बजाय हज़रत आदम के | इस्लाम के मुताबिक माँ हव्वा और हज़रत आदम दोनों ने गुनाह किया | जिसके लिए दोनों को सजा मिली | जब दोनों को अपने किये पर पछतावा हुआ और उन्होंने माफ़ी मांगी, तब दोनों को माफ़ कर दिया गया।
5 -तलाकशुदा का विवाह- समाज मे हर व्यक्ति को बिना शादी के नही रहना चाहिए/ अगर तलाक़ हो गयी है तो फ़ौरन अच्छे साथी चुन कर सुखमय जीवन बिताना चाहिए/तलाकशुदा और विधवा महिलाओं को सम्मान देकर पुरुषों को उनसे विवाह करने के लिए प्रेरित किया है , सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम हज़रत मुहम्मद ने ऐसी तलाकशुदा और विधवा महिलाओं से खुद विवाह करके अपने मानने वालों को दिखाया कि देखो मैं कर रहा हूँ , तुम भी करो , मैं सम्मान और हक दे रहा हूँ तुम भी दो , मुसलमानों के लिए विधवा और तलाकशुदा औरतों से विवाह करना हुजूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की एक सुन्नत पूरी करना है जो बहुत पुण्य का काम है। 
6 -वर चुनने का अधिकार-वर चुनने के मामले में इस्लाम ने स्त्री को यह अधिकार दिया है कि वह किसी के विवाह प्रस्ताव को स्वेच्छा से स्वीकार या अस्वीकार कर सकती है। इस्लामी कानून के अनुसार किसी स्त्री का विवाह उसकी स्वीकृति के बिना या उसकी मर्जी के विरुद्ध नहीं किया जा सकता। बीवी के रूप में भी इस्लाम औरत को इज्जत और अच्छा ओहदा देता है। कोई पुरुष कितना अच्छा है, इसका मापदंड इस्लाम ने उसकी पत्नी को बना दिया है। इस्लाम कहता है अच्छा पुरुष वहीं है जो अपनी पत्नी के लिए अच्छा है। यानी इंसान के अच्छे होने का मापदंड उसकी हमसफर है।
 7 - स्वतंत्र बिज़्नेस करने का अधिकार-इस्लाम ने महिलाओं को बहुत से अधिकार दिए हैं। जिनमें प्रमुख हैं, जन्म से लेकर जवानी तक अच्छी परवरिश का हक़, शिक्षा और प्रशिक्षण का अधिकार, शादी ब्याह अपनी व्यक्तिगत सहमति से करने का अधिकार और पति के साथ साझेदारी में या निजी व्यवसाय करने का अधिकार, नौकरी करने का आधिकार, बच्चे जब तक जवान नहीं हो जाते (विशेषकर लड़कियां) और किसी वजह से पति और पुत्र की सम्पत्ति में वारिस होने का अधिकार। इसलिए वो खेती, व्यापार, उद्योग या नौकरी करके आमदनी कर सकती हैं और इस तरह होने वाली आय पर सिर्फ और सिर्फ उस औरत का ही अधिकार होगा। औरत को भी हक़ है। (पति से अलग होना का अधिकार)
8 -और माता के रूप में - अगर बच्चे अपने पैरों पर खड़ें हैं तो मुस्लिम माता को उनसे विरासत पाने का हक है। अगर बेटे की मौत हो जाए और उसके बच्चे भी हैं तो मृतक की मां को उसकी संपत्ति का एक-छठवां हिस्सा मिलेगा। लेकिन अगर पोते-पोतियां नहीं हैं तो महिला को एक-तिहाई हिस्सा मिलेगा।
9 -मेहर : यह वो पैसा या संपत्ति होती है, जो शादी के वक्त पत्नी अपने पति से पाने की हकदार होती है। मेहर दो तरह की होती हैं-तुरंत और देरी से। पहले मामले में पत्नी को शादी के तुरंत बाद पैसा दे दिया जाता है। जबकि दूसरे में शादी खत्म होने के बाद मिलता है, चाहे वह तलाक के कारण हो या पति की मौत की वजह से।
10 -वसीयत: एक मुस्लिम पुरुष या औरत कुल संपत्ति का एक तिहाई हिस्सा ही वसीयत के जरिए दे सकता/सकती है। अगर संपत्ति में कोई वारिस नहीं है तो पत्नी को वसीयत के जरिए ज्यादा राशि मिल सकती है।
11 -हिबा: मुस्लिम कानून के तहत किसी भी तरह की संपत्ति को तोहफे के तौर पर दिया जा सकता है। एक गिफ्ट को वैध बनाने के लिए उसे तोहफा बनाने की घोषणा होनी चाहिए और रिसीवर द्वारा उसे स्वीकार किया जाना चाहिए।
    इस्लाम के अनुसार मर्द और औरतें दोनों समाज का हिस्सा हैं और दोनों को मिलकर समाज के कल्याण के लिए काम करना है इसलिए संतुष्ट होकर किसी स्थान पर उठना बैठना भी ज़रूरी हो। जब कोई महान उद्देश्य की प्राप्ति मकसद हो या किसी भलाई और नेक काम को अंजाम देने में औरत और मर्द दोनों के संयुक्त संघर्ष और आपसी सहयोग की ज़रूरत हो। लेकिन इस मेल जोल की भी इस्लाम (शरीयत) ने एक सीमा बताई है।
     इसके साथ साथ कानून भी अब इनकी स्थिति को लेकर जागरूक है और इनके लिए लाभदायक कुछ प्रावधान कर इनकी वित्तीय व्  पारिवारिक स्थिति सुदृढ़ करने के उपाय किये जा रहे हैं -
  1 -वयस्कता के विकल्प के सम्बन्ध में आधुनिक विधि [मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम 1939 ] ने वयस्कता के विकल्प की पुरानी विधि को काफी सीमा तक बदल दिया है ,इससे पहले पिता या पितामह द्वारा संविदाकृत विवाह ,अति विशिष्ट परिस्थितियों के सिवा ,वयस्कता प्राप्त कर लेने पर अवयस्क द्वारा अस्वीकृत नहीं किया जा सकता था परन्तु अब यह मुस्लिम विधि के अंतर्गत विवाहिता स्त्री के विषय में सन 1939 के उक्त अधिनियम की धारा 2 [7 ]के द्वारा निरस्त कर दी गयी है ,धारा 2 [7 ] का कथन इस प्रकार है -''मुस्लिम विधि के अंतर्गत विवाहिता कोई स्त्री विवाह-विच्छेद की डिक्री इस आधार पर प्राप्त करने के लिए अधिकृत होगी कि वह अपने पिता या अभिभावक द्वारा पंद्रह वर्ष की आयु प्राप्त करने के पहले विवाह में दिए जाने पर अठारह वर्ष की आयु प्राप्त करने से पहले उसने विवाह को अस्वीकार कर दिया ,बशर्ते कि विवाह पूर्णावस्था को प्राप्त न हुआ हो ,
2 - मशहूर शाह बानो केस में सुप्रीम कोर्ट ने तलाक के मामले में कहा था कि मुस्लिम महिला कानून, 1986 (तलाकों के अधिकारों का संरक्षण) के सेक्शन 3 (1एचए) के मुताबिक अलग होने के बाद भी अपनी पूर्व पत्नी की देखभाल करने की जिम्मेदारी पति की है। यह अवधि इद्दत के भी परे है, क्योंकि महिला अपनी संपत्ति और सामान पर नियंत्रण रखती है।
3 - इसके साथ ही तीन तलाक रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट प्रतिबद्ध है और उसके निर्देश पर केंद्र सरकार ने भी तीन तलाक रोकने के लिए एक मसौदा तैयार किया है -
1-यह मसौदा गृह मंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता वाले एक अंतर-मंत्री समूह ने तैयार किया है. इस में अन्य सदस्य विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, वित्त मंत्री अरुण जेटली, विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद और विधि राज्यमंत्री पीपी चौधरी थे.
2-प्रस्तावित कानून एक बार में तीन तलाक या 'तलाक ए बिद्दत' पर लागू होगा और यह पीड़िता को अपने तथा नाबालिग बच्चों के लिए गुजारा भत्ता मांगने के लिए मजिस्ट्रेट से गुहार लगाने की शक्ति देगा.
3-इसके तहत पीड़ित महिला मजिस्ट्रेट से नाबालिग बच्चों के संरक्षण का भी अनुरोध कर सकती है और मजिस्ट्रेट इस मुद्दे पर अंतिम फैसला करेंगे.
4-मसौदा कानून के तहत, किसी भी तरह का तीन तलाक (बोलकर, लिखकर या ईमेल, एसएमएस और व्हाट्सएप जैसे इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से) गैरकानूनी होगा.
5-मसौदा कानून के अनुसार, एक बार में तीन तलाक गैरकानूनी और शून्य होगा और ऐसा करने वाले पति को तीन साल के कारावास की सजा हो सकती है. यह गैर-जमानती और संज्ञेय अपराध होगा.
6-प्रस्तावित कानून जम्मू-कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में लागू होना है.
7-तलाक और विवाह का विषय संविधान की समवर्ती सूची में आता है और सरकार आपातकालीन स्थिति में इस पर कानून बनाने में सक्षम है, लेकिन सरकारिया आयोग की सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए सरकार ने राज्यों से सलाह करने का फैसला किया.
      इस प्रकार मुस्लिम विधि में महिलाओं की स्थिति उतनी भी बुरी नहीं है जितनी दिखाई जा रही है और जहाँ बुरी स्थिति है वहां सुधार करने की उच्चतम न्यायलय व् हमारी लोकतान्त्रिक सरकार द्वारा कोशिशें की जा रही हैं इसलिए आशा ही नहीं हमें विश्वास है कि मुस्लिम महिलाओं की ज़िंदगी में भी उन्नति का सूर्य जल्द ही उदित होगा और हाँ यह भी ज़रूरी है कि इसके लिए वे स्वयं भी प्रयास करें क्योंकि खुद को शिक्षा के उजाले से जोड़कर अपनी ज़िंदगी को वे बहुत जल्द 21 वीं सदी में जाने लायक बना पाएंगी और फिर सभी जानते हैं कि खुदा उसी की मदद करता है जो अपनी मदद आप करता है ,

कुमारी शालिनी कौशिक
          [एडवोकेट ]
कांधला [शामली ]


हिन्दू विधवा पुनर्विवाह के बाद भी उत्तराधिकारी 



     एक सामान्य सोच है कि यदि हिन्दू विधवा ने पुनर्विवाह कर लिया है तो वह अपने पूर्व पति की संपत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त नहीं कर सकती है किन्तु हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम कहता है कि यदि विधवा ने पुनर्विवाह कर लिया है तब भी वह उत्तराधिकार में प्राप्त संपत्ति से निर्निहित नहीं हो सकती है .इन द   मैटर ऑफ़ गुड्स ऑफ़ लेट घनश्याम दास सोनी ,2007  वी.एन.एस. 113  [इलाहाबाद] में कहा गया है कि विधवा हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की प्रथम अनुसूची में प्रथम श्रेणी के वारिस के रूप में अपने पति की परिसम्पत्तियों और प्रत्ययों के प्रशासन-पत्र की हक़दार है   और विधवा के इसी अधिकार को पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने उपरोक्त मामले में निर्णीत किया है .
मोटर वेहिकल एक्ट 1988  की धारा 166  कहती है -
केंद्र सरकार अधिनियम
मोटर वाहन अधिनियम, 1 9 88 में धारा 166
166. मुआवजे के लिए आवेदन.-
(1) धारा 165 की उपधारा (1) में निर्दिष्ट प्रकृति के दुर्घटना से उत्पन्न होने वाली मुआवजे के लिए आवेदन किया जा सकता है-
(ए) उस व्यक्ति द्वारा जिसने चोट कायम रखी है; या
(बी) संपत्ति के मालिक द्वारा; या
(सी) जहां मौत दुर्घटना से हुई है, मृतक के सभी या किसी भी कानूनी प्रतिनिधि द्वारा; या
(डी) किसी भी एजेंट द्वारा, जिसे व्यक्ति घायल व्यक्ति या मृतक के सभी या किसी भी कानूनी प्रतिनिधि द्वारा अधिकृत किया गया है, जैसा भी मामला हो: बशर्ते कि जहां मृतक के सभी कानूनी प्रतिनिधि मुआवजे के लिए किसी भी ऐसे आवेदन में शामिल नहीं हुए हों, आवेदन मृतक के सभी कानूनी प्रतिनिधियों के लाभ या इसके लिए किया जाएगा और जो कानूनी प्रतिनिधि शामिल नहीं हैं, उन्हें आवेदन के उत्तरदाताओं के रूप में लागू किया जाएगा। 
 [(2) उप-धारा (1) के तहत प्रत्येक आवेदन दावेदार के विकल्प पर बनाया जाएगा, या तो दावे के लिए न्यायाधिकरण जो उस क्षेत्र पर अधिकार क्षेत्र का है जिसमें दुर्घटना हुई है, या स्थानीय सीमा के भीतर दावा ट्रिब्यूनल जिसका अधिकार क्षेत्र दावेदार रहता है या व्यवसाय करता है या जिसके क्षेत्राधिकार प्रतिवादी रहते हैं, की स्थानीय सीमाओं के भीतर रहता है, और इस प्रकार के रूप में होगा और ऐसे विवरण शामिल होंगे जिन्हें निर्धारित किया जा सकता है: बशर्ते कि जहां धारा 140 के तहत मुआवजे के लिए कोई दावा नहीं किया जाता है आवेदन, आवेदन में आवेदक के हस्ताक्षर से पहले तत्काल प्रभाव के लिए एक अलग बयान शामिल होगा।]
 3 [****]
[(4) दावा ट्रिब्यूनल उप-धारा के तहत उसे अग्रेषित किए गए दुर्घटनाओं की किसी भी रिपोर्ट का इलाज करेगा ( 6) धारा 158 के तहत इस अधिनियम के तहत मुआवजे के लिए एक आवेदन के रूप में।]
इस प्रकार हिन्दू विधवा पुनर्विवाह के बाद भी अपने पूर्व पति की संपत्ति से निर्निहित नहीं हो सकती उसे पुनर्विवाह के बाद भी उसकी उस संपत्ति में हिस्सा मिलेगा जो उसके पति की उसके साथ विवाह के समय थी .

शालिनी कौशिक 

[एडवोकेट ]


कानूनन भी नारी बेवक़ूफ़, कमजोर 



नारी की कोमल काया व् कोमल मन को हमारे समाज में नारी की कमजोरी व् बेवकूफी कह लें या काम दिमाग के रूप में वर्णित किये जाते हैं .नारी को लेकर तो यहाँ तक कहा जाता है कि इसका दिमाग घुटनों में होता है और नारी की यही शारीरिक व् मानसिक स्थिति है जो उसे पुरुष सत्ता के समक्ष झुके रहने को मजबूर कर देती है लेकिन ऐसा नहीं है कि केवल हमारे समाज की नज़रों में ही नारी कमजोर व् बेवकूफ है बल्कि हमारा कानून भी उसे इसी श्रेणी में रखता है और कानून की नज़रें दिखाने को भारतीय दंड संहिता की ये धाराएं हमारे सामने हैं -
*धारा 493 -हर पुरुष जो किसी स्त्री को ,जो विधि पूर्वक उससे विवाहित न हो ,प्रवंचना से यह विश्वास कारित करेगा कि वह विधिपूर्वक उससे विवाहित है और इस विश्वास में उस स्त्री का अपने साथ सहवास या मैथुन कारित करेगा ,वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से ,जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी ,दण्डित किया जायेगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा .
*धारा 497 -जो कोई ऐसे व्यक्ति के साथ ,जो कि किसी अन्य पुरुष की पत्नी है ,और जिसका किसी अन्य पुरुष की पत्नी होना वह जानता है या विश्वास करने का कारण रखता है ,उस पुरुष की सम्मति या मौनानुकूलता के बिना ऐसा मैथुन करेगा जो बलात्संग के अपराध की कोटि में नहीं आता ,वह जारकर्म के अपराध का दोषी होगा ,और दोनों में से किसी भांति के कारावास से ,जिसकी अवधि पांच वर्ष तक की हो सकेगी ,या जुर्माने से ,या दोनों से दण्डित किया जायेगा .ऐसे मामले में पत्नी दुष्प्रेरक के रूप में दंडनीय नहीं होगी .
*धारा 498 - जो कोई किसी स्त्री को ,जो किसी अन्य पुरुष की पत्नी है ,और जिसका किसी अन्य पुरुष की पत्नी होना वह जानता है या विश्वास करने का कारण रखता है ,उस पुरुष के पास से ,या किसी ऐसे व्यक्ति के पास से ,जो उस पुरुष की ओर से उसकी देखरेख करता है ,इस आशय से ले जायेगा या फुसलाकर ले जायेगा कि वह किसी व्यक्ति के साथ आयुक्त सम्भोग करे या इस आशय से ऐसी किसी स्त्री को छिपायेगा या निरुद्ध करेगा ,वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी ,या जुर्माने से ,या दोनों से दण्डित किया जायेगा .
इस प्रकार उपरोक्त तीनों धाराओं के अवलोकन से साफ स्पष्ट है कि नारी बेवकूफ है क्योंकि दिमाग में कम होगी तभी तो कोई उसे फुसला लेगा और ये हमारा कानून भी मानता है ,यही नहीं वह स्वयं के दम पर नहीं रह सकती हमेशा किसी न किसी की देखरेख या संरक्षण में ही रहती है कभी बाप की तो कभी पति की और कभी बेटे की और ये सब न हों तो किसी अन्य पुरुष की और ये भी इन धाराओं के अनुसार हमारा कानून मानता है .हम सब आये दिन समाचार पत्रों में एक समाचार पढ़ते ही रहते हैं कि शादी का झांसा देकर फलां आदमी फलां औरत के साथ दुष्कर्म करता रहा अगर विचार करें तो ये झांसा क्या मायने रखता है जब जो कम शादी के बाद ही वैध है उसे करने को कोई नारी शादी से पहले तैयार कैसे हो गयी और जब तैयार हो गयी तो झांसा क्या सहमति ही तो कही जाएगी या फिर औरत की कमअक्ल .ऐसे ही धोखे से किसी नारी को यह दिखाना कि कोई पुरुष उससे विवाहित है यह भी कैसे संभव है ऐसा तो नहीं है कि शादी कोई ऐसा काम है जो अकेले में होता है .हर कोई अपनी शादी से पहले अपने समाज में विधि पूर्वक होने वाले इस संस्कार में शामिल होता ही रहता है फिर शादी का धोखा ,बात जंचती नहीं ,केवल एक बात जंचती है और वह यह कि कोई पुरुष पहले से विवाहित है और वह दूसरा विवाह धोखे से कर ले ,ये संभव है क्योंकि जैसे नारी के शरीर पर विवाह के चिन्ह सिन्दूर ,मंगल सूत्र व् बिछुए होते हैं ऐसे पुरुषों के शरीर पर कोई चिन्ह नहीं होते .
पर धीरे धीरे हमारी सुप्रीम कोर्ट नारी-पुरुष भेदभाव को लेकर लगता है जागरूक हो रही है क्यूंकि अभी केरल के रहने वाले जोसेफ शाइनी की जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि कोर्ट विचार करेगा कि शादीशुदा महिला के परपुरुष से सम्बन्ध बनाने में सिर्फ पुरुष ही दोषी क्यों ,महिला क्यों नहीं ?
सवाल समानता का हो तो समानता होनी भी तो चाहिए .जब एक अपराध दो लोग मिलकर कर रहे हैं तो उन्हें सजा भी बराबर मिलनी चाहिए इसमें पुरुष स्त्री का भेदभाव नहीं होना चाहिए और सुप्रीम कोर्ट के अनुसार समाज तरक्की कर रहा है और नारी पुरुषों से आगे ही बढ़ रही हैं फिर अपराध के मामले में भेदभाव कर बराबर के अपराध पर दोनों को बराबर की सजा मिलनी ही चाहिए .कानून में समयानुकूल परिवर्तन अब हो ही जाना चाहिए न केवल यौन दुर्व्यवहार के मामलों में अपितु वैवाहिक सभी मामलों में क्यूंकि कानून की नारी के प्रति कोमल दृष्टि सही और हर प्रकार से सही पुरुषों पर बहुत भारी पड़ रही है क्यूंकि शादी होते ही पुरुष अगर नारी के मालिक हो जाते हैं तो कानूनन नारी भी पुरुषों की सारी सम्पदा की मालिक हो जाती है और दहेज़ कानून के सात वर्ष का सहारा लेकर व् धरा 498 -क का सहारा लेकर शादी के एकदम बाद पति व् उसके घरवालों को अपने चंगुल में ले लेती है और मनचाहा वसूलती है क्यूंकि एक सही आदमी जेल जाने से डरता है और समाज में अपनी बदनामी के दंश से बचने के लिए वह सब कुछ करता है जो वह चाहती है किन्तु कानून उसकी कोमल मूर्ती व् कमजोर बुद्धि को ही अपने आगे रखती है जिसे बेचारा पुरुष झेलता है और लखनऊ के पुष्कर के समान फांसी पर झूलने को मजबूर हो जाता है इसलिए कानून को भी अपनी सोच बदलनी होगी और इस कोमल काया और कम दिमाग के परिवर्तन की गति आंकलित करनी होगी और इसके अनुसार कानून में नयी व्यवस्थाएं भी .
शालिनी कौशिक
(एडवोकेट) 



   



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