जूली आई लव यू (भाग - 24 - 33)
भाग - 24

गाड़ी अपने गंतव्य की ओर तेजी से बढ़ रही थी. रामेश्वरम पहुंचकर ज्यों ही दादी मां ने पहला चरण वहां की धरती पर रखा त्यों ही झुककर वहां की धरती को प्रणाम किया. सनातन धर्म के अत्यंत पवित्र चार धामों में से एक, पाम्बन द्वीप पर स्थित रामेश्वरम नगर को यदि दक्षिण की काशी कहकर संबोधित किया जाये तो त्रुटिपूर्ण न होगा। कैप्टन सहित जूली, भानु सिंह तथा चंद्रप्रताप ने भी झुककर रामेश्वरम की पवित्र धरा को सिर नवाया। जूली कैप्टन के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोली - " हमें रामेश्वरम के विषय में और अधिक जानकारी प्रदान करो कैप्टन। हम जानते हैं तुम अद्भुत ज्ञान धारण करने वाले प्राणी हो। '' कैप्टन ने पूंछ हिलाते हुए जूली द्वारा की गई इस प्रशंसा पर हर्ष व्यक्त किया। दादी मां से अनुमति लेकर कैप्टन ने रामेश्वरम के विषय में बताया आरंभ किया - '' लिटिल प्रिंसेस उत्तर भारत में भगवान शिव की नगरी काशी की जितनी मान्यता है दक्षिण में उतनी ही मान्यता रामेश्वरम की है। आज हम जहाँ उपस्थित हैं वह भारत के तमिलनाडु राज्य के रामनाथपुरम जिले का एक तीर्थ नगर है। तमिल भाषी रामेश्वरम को अपने उच्चारण में '' इरोमेस्वरम " कहते हैं। भौगोलिक दृष्टि से यह मन्नार की खाड़ी पर स्थित है। भारत की मुख्य भूमि से यह रामेश्वरम द्वीप पाम्बन जल संधि द्वारा अलग है और रावण की श्रीलंका के मन्नार द्वीप से चालीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। कहा जाता है कि शंख जैसे आकार वाला यह द्वीप प्राचीन काल में भारत की मुख्य भूमि से जुड़ा हुआ था परंतु समुद्र की प्रचंड वेग वाली लहरों ने दोनों को मिलाने वाली कड़ी को धीरे धीरे काट डाला और यह भारत की मुख्य भूमि से कटकर चारों ओर जल से घिरा हुआ द्वीप बन गया। लिटिल प्रिंसेस परम पूज्य श्री राम के जीवन में घटित घटनाओं के साथ पवित्र रामेश्वरम का नाम बहुत गहराई के साथ जुड़ा हुआ है। राक्षसराज रावण ने जब माता सीता का हरण कर उन्हें लंका में बंदिनी बना लिया तब श्रीराम ने भारत भूमि से लंका की भूमि के मध्य विशाल सागर पर रामसेतु के नाम से विख्यात पुल का निर्माण कर माता सीता की मुक्ति के लिए अविश्वसनीय कार्य कर डाला। रामसेतु की सहायता से ही वानर दल लंका पहुंचा और रावण की नगरी में अपना डंका बजा दिया। रामेश्वरम के नार में स्थित शिव मंदिर श्री राम द्वारा अपने इष्ट भगवान शिव की उपासना का साक्षात प्रमाण है।
लिटिल प्रिंसेस सनातन धर्म के शास्त्रों में रामेश्वरम का नाम गंधमादन पर्वत कहा गया है। प्रभु श्री राम ने यहां नवग्रह की स्थापना का सुंदर कार्य किया था। रामेश्वर मंदिर के संबंध में एक मान्यता भक्तों में प्रसिद्ध है कि यहां डुबकी लगाने से मानव मात्र की सभी व्याधियों का नाश हो जाता है और मनुष्य पाप मुक्त हो जाता है। मां दुर्गा द्वारा यहीं दुष्ट राक्षस महिषासुर का वध भी किया गया था। रामेश्वर से थोड़ी दूरी पर स्थित जटा तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध कुंड के संबंध में मान्यता है कि लंका विजय के बाद श्री राम ने यहीं अपने केश धोये थे। बाइस पवित्र जल स्रोतों से युक्त रामेश्वर मंदिर में अनेक देवी देवताओं को समर्पित मंदिर बने हुए हैं। रामेश्वर मंदिर से लगभग तीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित धनुष्कोटि तीर्थ पितृ मिलन व श्राद्ध आदि से संबंधित तीर्थ है और रही बात रामेश्वरम तीर्थ के नामकरण की तो
रामेश्वरम शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा से हुई है – (राम-ईश्वरम) और इसका अर्थ है “राम के भगवान”यह एक शब्द रामनाथस्वामी मंदिर के पीठासीन प्रभु भगवान शिव को लक्षित करता है।रामेश्वरम उन्हें ही समर्पित शब्द है।
तमिल भाषा में, इस देव मंदिर को इरामनातस्वामी किइल कहते हैं अर्थात रामनाथस्वामी का घर – राम के नाथ भगवान शिव का घर । इसी कारण रामेश्वरम इस नगर का नाम पड़ा।'' यह बताकर कैप्टन ज्यों ही चुप हुआ वैसे ही जूली जिज्ञासावश तुरंत बोल उठी - '' कैप्टन रामेश्वरम की ऐतिहासिक कथा भी तो सुनाओ, हम तो मुख्यतः वही सुनना चाहते हैं। '' कैप्टन क्षमा मांगते हुए बोला - '' जी लिटिल प्रिंसेस जरूर। लिटिल प्रिंसेस पुराणों में वर्णित कथाओं के अनुसार मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने अपने चौदह वर्ष के वनवास में धर्म की स्थापना व अधर्म के नाश के लिए अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए। श्री राम ने माता सीता के अपहरणकर्ता लंकेश रावण का वध कर अधर्म का नाश किया । सनातन संस्कृति के आदर्श ग्रंथों में उल्लेख है कि इसके पश्चात जब अयोध्या नरेश श्रीराम भार्या सीताजी को लेकर लौटे तब ऋषि-मुनियों ने श्री राम से रावण के वध के कारण उन पर लगे ब्रह्म हत्या का पाप का परिहार करने के लिए कहा । तब श्रीराम ने रामेश्वरम द्वीप पर शिवलिंग की स्थापना करने का निश्चय किया। श्री राम ने पवन पुत्र हनुमान जी को कैलाश पर्वत से शिवलिंग स्वरूप लाने के लिए प्रेषित किया , हनुमान जी प्रभु की आज्ञा का पालन करते हुए कैलाश पर्वत पर गए किंतु उन्हें विलंब होने पर माता सीता ने सागर के किनारे पर फैली रेत से ही शिवलिंग की स्थापना की । पवनपुत्र हनुमान जी जो शिवलिंग लेकर लौटे उसे भी मां सीता के द्वारा निर्मित शिवलिंग के समीप श्री राम द्वारा स्थापित कर दिया गया । हनुमान जी द्वारा कैलाश पर्वत से लाए गए शिवलिंग को "विश्वलिंग" के नाम से जाना जाता है और माता सीता द्वारा निर्मित शिवलिंग को "रामलिंग" के नाम से उच्चरित किया जाता है । इन दोनों शिवलिंग का पूजन रामेश्वरम तीर्थ के मुख्य मंदिर में आज भी किया जाता हैं। लिटिल प्रिंसेस पौराणिक ग्रंथों में एक कथा यह भी पढ़ने को मिलती है कि जब प्रभु श्री राम लंका की ओर रावण से युद्ध हेतु प्रयाण कर रहे थे, तब सागर तट पर श्री राम ने अपने इष्ट भगवान शिव के शिवलिंग की स्थापना कर भगवान शिव का पूजन किया । भगवान भोलेनाथ ने श्री राम पर हर्षित होकर उन्हें विजयी होने का वरदान दिया । श्री राम ने भगवान भोलेनाथ से विनम्र प्रार्थना की कि आप सदैव इस ज्योतिर्लिंग में निवास कर युगों युगों तक अपने भक्तों की हर मनोकामना पूर्ण करते रहें। श्री राम की विनती स्वीकार कर भगवान शिव सदा सदा के लिए ज्योतिर्लिंग के रूप में रामेश्वरम में विराजमान हो गए।लिटिल प्रिंसेस
बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक रामेश्वरम शिवलिंग की बहुत मान्यता है। भक्तों का कहना है कि यहां मांगी गई हर मनोकामना पूर्ण होती है विशेषकर शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए रामेश्वरम शिवलिंग की उपासना बहुत फलदायी है। ''
(जारी)
जूली रामेश्वरम की महिमा सुनकर भगवान शिव व प्रभु श्री राम के प्रति श्रद्धा भाव से भरकर बोली - '' दादी मां चलिये ना भगवान के दर्शन करते हैं। '' दादी मां जूली की बाल सुलभ आतुरता देखकर मुस्कुरा दी व बोली - '' लिटिल प्रिंसेस प्रभु के दर्शन के कुछ नियम है। हमें प्रातः चार बजे यहां लाइन में लगना होगा। ठीक है? '' जूली समझदारी के साथ बोली - '' ठीक है दादी मां हम चार बजे प्रातः यहां पहुंच जायेंगें। क्या आपने पहले प्रभु के दर्शन किए हैं? '' दादी मां स्मृतियों में बहते हुए बोली - '' हाँ लिटिल प्रिंसेस मैंने आपके दादा जी के स्वर्गवास से पहले उनके साथ यहां प्रभु के दर्शन किए थे। अब तो बहुत वर्ष हो गए। तब तो तुम्हारा जन्म भी नहीं हुआ था। वहां सुबह 4 बजे से 6 बजे के बीच मणि दर्शन कराया जाता है और मणि दर्शन में स्फटिक के शिवलिंग का दर्शन कराया जाता है।
दादी माँ जूली को यह सब बता ही रही थी कि भानु सिंह ने क्षमा मांगते हुए सूचित किया कि गुरूदेव अपने आश्रम में उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। दादी मां ने मां ने मन ही गुरूदेव के चरणों में प्रणाम किया और शीघ्रता से आश्रम चलने का आदेश दिया। गुरूदेव का आश्रम थोड़ी ही दूरी पर स्थित था। आश्रम पहुंचते पहुंचते संध्या का समय हो गया था।
आश्रम के द्वार पर उपस्थित प्रहरी के चेहरे पर भानु सिंह व चंद्र प्रताप के साथ कैप्टन को देखते ही मुस्कान आ गयी। उनके पीछे पीछे आ रही दादी मां व जूली को उसने झुककर प्रणाम किया। चंद्र प्रताप ने प्रहरी के कंधे पर गर्मजोशी से हाथ रखते हुए कहा - ''... तो आज तुम्हारी ड्यूटी द्वार पर लग ही गई बंधु वेणु! '' नवयुवक वेणु थोड़ा लजाता हुआ मधुर वाणी में बोला - '' हाँ बंधु ।अब मैं जीवन का वास्तविक आनंद ले रहा हूं। गुरूदेव ने मेरे सोचने के ढ़ग को ही परिवर्तित कर दिया। मैं किसी धनाढ्य का धन पर अहंकार करने वाला ढ़ीठ कुपुत्र नहीं बल्कि सृष्टि के कण कण में व्याप्त विनम्रता, परोपकार, अनुशासन को ग्रहण करने वाला गुरूदेव का आज्ञाकारी शिष्य बन गया हूं। '' चंद्र प्रताप आश्चर्यचकित होते हुए बोला - '' इतने कम समय में इतना परिवर्तन!!!! विश्वास नहीं होता आप वही वेणु हैं जिन्होंने गुरूदेव द्वारा आश्रम में झाड़ू लगाने की आज्ञा को यह कहकर करने से अस्वीकार कर दिया था कि यह काम मैं नौकरों से कराता हूं। वास्तव में गुरूदेव का चमत्कारिक व्यक्तित्व ही आप को परिवर्तित करने में सक्षम है। '' वेणु लज्जित स्वर में बोला - '' आप सत्य कहते हैं। मेरे मना करने पर जब गुरूदेव ने सहज भाव से यह कहा था कि मैंने सत्य कहा तब मेरे अहंकार का शीशमहल अंदर ही अंदर टूट गया था पर जब गुरूदेव स्वयं झाड़ू लेकर आश्रम की सफाई करने लगे तब तो मेरे लिए इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड में डूब मरने के लिए कोई स्थान नहीं बचा। मैं अपने कक्ष में जाकर बहुत रोया। गुरूदेव वहीं चले आये और बोले - '' प्रिय वेणु विलाप मत करो। यह तुम्हारी नहीं तुम्हारे अभिभावकों के लालन-पालन की त्रुटि है। जब दोष तुम्हारा नहीं तब पश्चाताप भी तुम नहीं करोगे। आओ हम मिलकर पूरे आश्रम को प्रकृति की सुंदर मंजूषा में परिणत कर देते हैं। न जाने क्या जादू था उनके एक एक शब्द में। मैं उनके पीछे चल पड़ा। मानो परमात्मा के पीछे जीवात्मा। जीवन में प्रथम बार स्वयं कार्य करने का आनंद अनुभव किया। गुरूदेव ने मेरा जीवन सफल कर दिया बंधु.... सफल कर दिया। '' यह कहते हुए वेणु भावविह्वल हो गया। दादी मां व जूली के नेत्र भी सजल हो उठे। कैप्टन ने भी भावुक होकर कहा - '' प्रिय वेणु बंधु आपकी प्रकृति कर्मशील ही है। धनाढ्य परिवार में जन्म लेने के कारण बचपन से ही आपको सेवक मिलते रहे, इसलिए आप कर्म से विरत रहे और साफ-सफाई आदि करने को नीची दृष्टि से देखने लगे किंतु ज्यूं ही परम आदरणीय गुरूदेव द्वारा आपको उचित मार्गदर्शन प्रदान किया गया वैसे ही आप अपनी मूल प्रकृति की ओर लौट आये। एक उद्धरण से समझाता हूं -
स्वभावो न उपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा।
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम्।।
अर्थात सनातन धर्म के आदर्श ग्रंथों में स्पष्ट उल्लेख है कि केवल उपदेश देने से किसी के स्वभाव को परिवर्तित नहीं जा सकता है। मानव की प्रकृति उसके स्वयं के अनुभव के आधार पर ही परिवर्तित होती है। जैसे जल को अधिक गर्म करने पर वह गर्म तो हो जाता है किंतु कुछ समय पश्चात पुनः से शीतल हो जाता है।अब शोक न करें और हम सभी को शीघ्रता से गुरूदेव के समीप ले चलें। '' वेणु ने झुककर कैप्टन के भाल को चूम लिया व अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए उन सभी को गुरूदेव के समीप ले चला।
जूली की दृष्टि गूधूली की उस बेला में आश्रम में व्याप्त पवित्र वातावरण की ओर बार बार आकर्षित हो रहा था. चारों ओर हरियाली ही हरियाली. पक्षियों के कलरव के मधुर स्वर से गुंजायमान धरा व गगन। दूर से दिखाई देते सरोवर किनारे छलांग लगाते मृग। सरोवर के नील स्वच्छ जल में आनंद से क्रीड़ा करते श्वेत धवल हंस युगल, संध्याकाल में मुकुलित कमल - हर ओर ऐसे दृश्य कि जूली का ह्रदय आनंद रस में गहरा डूबा जाता था। जैसे जैसे गुरूदेव की कुटिया की ओर चरण बढ़ रहे थे, वैसे - वैसे वातावरण में हवन-पूजन के कारण व्याप्त हवन सामग्री की दिव्य सुगंध तन मन को एक नयी ऊर्जा प्रदान कर रही थी। पिछले कितने ही दिनों की शारीरिक व मानसिक थकावट मानों छूमंतर हो गयी हो। दादी मां गुरूदेव के सानिध्य की दिव्यता से परिचित थी किन्तु जूली के लिए यह नूतन अनुभव था।उज्जैन के महाकालेश्वर पवित्र धाम में गुरूदेव के सानिध्य की बात वह दादी मां से सुन चुकी है पर वह प्रसंग उसकी स्मृतियों में वैसे ही धूमिल है जैसे किसी धूल से आच्छादित दर्पण में अपना प्रतिबिंब । यद्यपि दादी मां व कैप्टन के मुख से गुरूदेव के विषय में वह बहुत कुछ सुन चुकी पर उनसे साक्षात्कार का जूली के लिए यह प्रथम अवसर था। जूली ने ह्रदय से प्रणाम करते हुए सोचा कि वास्तव में गुरूदेव गुरू पद को सुशोभित करने वाले अद्भुत व्यक्तित्व हैं क्योंकि -
धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः।
तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते।।
अर्थात धर्म को जाननेवाले, धर्म के अनुसार आचरण करनेवाले, धर्म-परायण व समस्त शास्त्रों में से तत्त्वों का आदेश करने वाले गुरु कहे जाते हैं।
(जारी...)
दादी माँ की अटूट श्रद्धा ही यह प्रमाणित करती है कि हमारे गुरूदेव सदैव सदाचरण करते हुए धर्म की स्थापना के लिए प्रयासरत रहते हैं. शास्त्र तो कहते ही हैं -
किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटि शतेन च।
दुर्लभा चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम्।।
बहुत कहने से क्या आवश्यकता ? सौ से अधिक शास्त्रों से भी क्या ? चित्त की परम् शांति, गुरु के बिना मिलना दुर्लभ है और मेरे चित्त की शांति तभी संभव है जब माता जी व पिताजी महाराज के दर्शन कर लूं। क्या गुरूदेव यह संभव कर पायेंगे? ''
यही सोचते सोचते जूली वेणु, दादी मां, कैप्टन, भानु सिंह व चंद्र प्रताप के साथ साथ गुरूदेव की कुटिया के बाहर पहुंच गए। वेणु सभी को वहीं रूकने के लिए कहकर अंदर प्रविष्ट हुआ। क्षण भर में ही वह लौट आया और उत्साहपूर्ण स्वर में दादी मां के आगे नत मस्तक होते हुए बोला - राजमाता जी महाराज! गुरूदेव आपसे व राजकुमारी जी से शीघ्र ही एकांत में भेंट करना चाहते हैं। '' दादी मां व जूली गुरूदेव की आज्ञा का पालन करते हुए उनकी कुटिया में प्रविष्ट हुई।
कुटिया में पूर्व दिशा की ओर मुख किए हुए गुरूदेव शांत मुद्रा में साधू के उपयोग में आने वाले श्वेत वस्त्र धारण किए हुए अपने कुशा के आसन पर विराजमान थे। दादी मां ने जूली के साथ झुककर उन्हें प्रणाम किया तो आशीर्वाद देते हुए उन्होंने '' चिरंजीवी भवः " कहा। जूली को अनुभव हुआ कि यह स्वर वह बहुत बार सुन चुकी है । जूली ने नेत्र उठाकर गुरूदेव के मुख के दर्शन किए। उसका रोम रोम पुलकित हो उठा। ह्रदय ने कहा - '' अरे यह मुख तो युगों युगों से मेरा श्रद्धेय मुख है। '' जूली ने नेत्र बंद किए तो देखा - वह किसी की ऊंगली पकड़कर हिमाच्छादित पर्वत से धीरे-धीरे नीचे उतर रही है। उसने मुख उठाकर देखा कि किसकी ऊंगली थामी है उसने ? तो देखती है कि यह क्या!!!!! यह तो गुरूदेव हैं। '' जूली के नेत्र अनायास ही खुल गये और सामने विराजे गुरूदेव रहस्यमयी मुस्कान से देख रहे हैं उसे। वह दौड़कर उनके पास पहुंची और उनके चरण-कमलों में झुककर अश्रुधारा बहाने लगी। अतीत का एक एक क्षण उसकी आंखों में क्रम से ऐसे घूमने लगे जैसे धूल चढ़े दर्पण को किसी ने स्वच्छ जल से धो डाला हो। निरंतर अश्रुधारा बहे जा रही है और जूली देखती है कि एक अद्वितीय सुंदर नारी की गोद में वह किलकारियाँ भर रही है। एक देवता समान पुरूष उसे गोद में लेने के लिए आगे बढ़ता है तो वह अद्वितीय सुंदर नारी भयंकर काली रूप में परिणत हो जाती है । देवता समान पुरूष डर कर पीछे हट जाता है और पूरा राजमहल गहरे अंधकार की चादर से ढ़क जाता है । एक क्रूर अट्टहास का कर्णभेदी कटु स्वर चहुंओर भयंकरता के साथ गूंजने लगा। यह असहनीय था। अपने दोनों कानों को अपनी हथेलियों से कसकर बंद करते हुए जूली चीख पड़ी-'' नहीं.... चुप हो जाओ दुष्ट... चुप हो जाओ। '' यह कहते कहते वह यथार्थ में लौट आई। दादी मां ने आगे बढ़कर उसे सांत्वना देनी चाही तो गुरूदेव ने हाथ के संकेत से उन्हें रोक दिया। जूली के शीश पर गुरूदेव ने अपना हाथ रखा तो मानो धधकता ज्वालामुखी एकदम से ही शीतल हो उठा। जूली सहज होते हुए बोली - '' गुरूदेव हमें हमारे माता जी व पिताजी महाराज से मिला दीजिए। दादी मां कहती हैं कि केवल आप ही ऐसा कर सकते हैं। ''
गुरूदेव ने थोड़े सख्त स्वर में कहा - '' नहीं हम यह करने में सक्षम नहीं है। '' जूली के नन्हें ह्रदय को स्वर की सख्ती से ज्यादा गुरूदेव के वचन से ज्यादा आघात लगा ।जूली ने कातर दृष्टि से मुड़कर दादी मां की ओर देखा। उनके नेत्र बंद थे और दोनों हाथ नमस्कार की मुद्रा में थे। गुरूदेव पुनः बोले - '' तुम्हारे माता-पिता है, स्वयं खोजो। मुझसे क्यों आशा कर रही हो। मेरी तरह तुम्हारे भी दो दो आंख व कान हैं। मुख है, नासिका है, पैर हैं, हाथ हैं फिर क्यों इतनी दुर्बल बनकर मेरे चरणों में अश्रुधारा बहा रही हो?
क्या तुमने वीर बहुटी वीर बालिका चम्पा की प्रेरक कथा नहीं पढ़ी - सुनी? अगर तुम सुन पाती पुत्री तो अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए किसी अन्य की ओर ऐसी कातर दृष्टि से न देखती। महाराणा की पुत्री के दृढ़ व्यक्तित्व को जानो पुत्री। किसी भी विपरीत परिस्थिति में कैसे अपना व अपने परिजनों का संबल बनते हैं - यह समझो पुत्री। अब ध्यान से सुनो -
महाराणा प्रताप का नाम तो तुमने सुना ही होगा? '' जूली ने गुरूदेव के प्रश्न के उत्तर में हां में सिर हिला दिया तब गुरूदेव कथा आरंभ करते हुए बोले - '' वही महाप्रतापी
महाराणा प्रताप अपने परिवार के सदस्यों और विश्वास पात्रों के साथ मुगल बादशाह अकबर के साथ युद्ध में पराजित होने के पश्चात वन वन भटक रहे थे। वीर प्रताप अकबर से किसी भी तरह की सन्धि करने के लिए तैयार नहीं थे।
नन्हें बच्चों के साथ वन वन भटकते हुए उन्हें कई कई दिन भूखे प्यासे रहकर या जंगली बेर और घास की रोटी आदि खाकर दिन व्यतीत करने पड़ रहे थे। बहुत ही संकट का समय था। उनकी पुत्री वीरांगना चम्पा उस समय मात्र ग्यारह वर्ष की नन्हीं सी बालिका थी । लगभग तुम्हारी ही आयु की पर थी बहुत ही संतोषी, धीर, गम्भीर व दृढ़ निश्चयी। वह अपने पिता के मान सम्मान की रक्षा करने वाली व राष्ट्र से प्रगाढ़ प्रेम करने वाली बालिका थी। छोटा भाई भूख से छटपटाता तो उसे कहानियां सुनाकर सुला देती। आज का भोजन कल के लिए बचाकर रखती। अपने हिस्से का भोजन भाई या अतिथी को खिला देती। इस क्रम में वह शारीरिक रूप से अत्यंत दुर्बल होती चली गई पर वह आत्मिक व मानसिक रूप से बहुत मजबूत होती जा रही थी। एक दिन वह भूख प्यास से अत्यंत पीड़ित होकर मूर्छित होकर धरती पर गिर पड़ी। महाराणा अपनी पुत्री की यह दशा देखकर विचलित ह्रदय हो उठे परंतु पिता की इस अवस्था का अनुमान कर उनकी गोद में सिर रखे हुए अंतिम समय में भी चंपा ने महाराणा जी को टूटने नहीं दिया। उसने पिता से कहा कि - '' आप कभी अत्याचार के आगे घुटने मत टेकना। आप बादशाह अकबर से कभी संधि मत करना। '' यह कहकर वह सदा सर्वदा के लिए अनंत में विलीन हो गयी। ऐसी महान बालिका के देश में जन्म लेकर तुम कैसे दुर्बल ह्रदय हो सकती हो। मैं तुम्हें मार्ग बता सकता हूं पर उस पर चलना तुम्हें ही होगा पुत्री। '' गुरूदेव के यह कहते ही कुछ क्षण पूर्व लाचार सी दिख रही जूली के मुख पर उत्साह के भाव झलक उठे। उसने दोनों हाथ जोड़कर दृढ़ता के साथ कहा - '' गुरूदेव आप मार्ग सुझायें। हम हर विपत्ति का सामना करने के लिए तैयार हैं। ''
गुरूदेव के मुख पर प्रसन्नता के भाव दिखाई दिए। दोनों हाथों को आशीर्वाद की मुद्रा में उठाकर गुरूदेव बोल उठे - '' साधु साधु! यशस्वी भवः! नन्हीं राजकुमारी क्या तुम अपने वास्तविक नाम व कुल से परिचित हो? '' जूली आश्चर्यचकित होते हुए (एक बार दादी मां की ओर दृष्टि डालकर) बोली - '' वास्तविक नाम व कुल??? कुल के विषय में तो मैं नहीं जानती हूं किंतु मेरा नाम जूली है। दादी मां सदैव से मुझे इसी नाम से संबोधित करती आ रही हैं। '' गुरूदेव के मुख पर बाल सुलभ वार्तालाप के कारण प्रसन्नता के भाव दिखाई दिए। वह मुस्कुराते हुए बोले - ''बहुत मधुर स्वर है तुम्हारा पुत्री। पुत्री तुम देवी कात्यायनी के कुल की दिव्य राजकुमारी हो। एक समय तुम्हारे प्रतापी पूर्वजों ने पृथ्वी के अधिकांश भाग को अपने पौरूष के बल पर अपने अधिकार में कर लिया था। राक्षसों, असुरों, दुष्टों के अधर्म का अंत कर सर्वत्र सदाचरण धर्म की स्थापना करना ही उनके जीवन का लक्ष्य रहा। इसी कुल में तुम्हारे पितामह के पितामह महाराज सूर्यकांत का जन्म हुआ जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी का तन-मन-धन से सहयोग किया। उनके पुत्र अर्थात तुम्हारे प्रपितामह महाराज शिवकांत ने भी उनका अनुसरण करते हुए सरदार वल्लभ भाई पटेल के आह्वान पर सन 1947 में भारत के स्वतंत्रता प्राप्ति के समय अपना राज्य भारतीय संघ में विलय करा दिया तथा आचार्य विनोबा भावे के भूदान आंदोलन से जुड़कर बहुत बड़ी संख्या में जमींदारों को भूदान हेतु प्रेरित किया। उनके पुत्र अर्थात तुम्हारे पितामह महाराज रमाकांत का जन्म अपनी ननिहाल हिमगिरि में हुआ। महाराज शिवकांत को संदेश भिजवाया गया पर उन्होंने प्रतिउत्तर में केवल इतना संदेश भेजा - ' पुत्र के लिए अब मेरे पास केवल आशीर्वाद है। वह दीर्घायु हो, यशस्वी हो। मैं अपना राज्य, धन-संपत्ति समस्त ऐश्वर्य भारत सरकार को दान कर चुका हूँ। ह्रदय में मोह माया समाप्त हो चुकी है। तपस्या के लिए हिमालय की गोद में जा रहा हूं।' 'संदेश प्राप्त होते ही हिमगिरि राज्य में जन जन सकते में आ गया। महाराज रमाकांत का पालन-पोषण नाना-नानी (हिमगिरि राज्य के महाराज-महारानी) ने अपने पुत्र के समान किया क्योंकि उनके एकमात्र संतान महाराज रमाकांत की माता जी ही थी। नाना-नानी के देहांत के पश्चात महाराज रमाकांत हिमगिरि राज्य के शासक बने। हिमगिरि राज्य भारत व नेपाल के मध्य पर्वतीय क्षेत्र में बसा समृद्ध राज्य है। महाराज रमाकांत से नेपाल के राजवंश की राजकुमारी अपराजिता देवी का शुभ विवाह सम्पन्न हुआ। '' जूली एकाएक हर्षित होते हुए बोली - '' राजकुमारी अपराजिता!!! अर्थात मेरी दादा मां!!! '' गुरूदेव के साथ साथ जूली की इस प्रतिक्रिया पर दादी मां भी मुस्करा दी। गुरूदेव सहमति देते हुए बोले - '' हाँ हाँ नन्हीं राजकुमारी यहीं आपकी दादी मां ! महाराज रमाकांत की न्याय प्रियता व धर्माचरण ने हिमगिरि राज्य को आदर्श राज्य के रूप में स्थापित किया। उनके पुत्र महाराज शशिकांत हुए अर्थात आपके पिताजी नन्हीं राजकुमारी। ''
महाराज शशिकांत नाम सुनते ही जूली जिज्ञासावश तुरंत बोल उठी - '' हमारे पिताजी गुरूदेव!!!!! हमारे!!! हमने तो स्वप्न में उनके नाम की जयकार सुनी थी गुरूदेव। हमने दादी मां से स्वप्न का जिक्र भी किया था पर दादी मां ने कुछ नहीं बताया। आप ही मार्गदर्शन करें गुरूदेव। '' यह कहकर जूली ने दोनों हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया। गुरूदेव सहज भाव से बोले - '' नन्हीं राजकुमारी आप धैर्य रखें। आपके पिताजी महाराज व माता जी महाराज के विषय में मैं सम्पूर्ण जानकारी तुम्हें प्रदान करूंगा। मेरे ही निर्देश का पालन करते हुए तुम्हारी दादी मां ने आज तक तुम्हें इस विषय में कुछ नहीं बताया है। हर जिज्ञासा को शांत करने का एक निश्चित समय होता है जिसके लिए हमारा ह्रदय व मस्तिष्क पूर्ण रूप से तैयार होना चाहिए। आज वह समय आ चुका है कि तुम अपने माता पिता के विषय में सब कुछ जानकर न केवल अपनी जिज्ञासाओं को शांत करो वरन् भविष्य में तुम्हें क्या करना है? - इस संबंध में अपने कर्तव्य का निर्धारण भी सुनिश्चित करो। नन्हीं राजकुमारी हिमगिरि के राजकुमार शशिकांत का विवाह हिमगिरि के ही एक संभाग देवगिरी के प्रतिष्ठित परिवार की अद्वितीय सुंदर सुशील कन्या सौभाग्यवती देवी गिरीनंदिनी अर्थात आपकी माता जी के साथ हुआ। विवाह के दस वर्ष बीत जाने पर भी जब राज दंपति के कोई संतान नहीं हुई तब आपकी माता श्री, दादी मां, दादा जी, पिताजी महाराज के साथ साथ पूरा हिमगिरि राज्य चिंतित हो उठा। मैं उस समय हिमालय की एक कंदरा में तपस्या में लीन था। प्रजा द्वारा महाराज शशिकांत के दूसरे विवाह की मांग की जाने लगी जिससे आहत होकर आपकी माता श्री राजभवन का त्याग कर अपने मायके देवगिरी चली गई। वहां उनकी माता जी को किसी ने सूचित किया कि - '' एक बहुत बड़े सिद्ध बाबा नेपाल से देवगिरी आए हैं। चर्चा है कि एक बार यदि बांझ स्त्री पर भी बाबा की दृष्टि पड़ जाये तो वह तुरंत गर्भवती हो जाती है। '' तुम्हारी नानी जी तुम्हारी माता जी को सबको नजरों से बचाकर उस बाबा के पास ले गई। तुम्हारी माता जी के अपूर्व सौंदर्य को देखकर वह बाबा वासना के वशीभूत उन्हें फंसाने के लिए लालायित हो उठा। उसने तुम्हारी नानी से तुम्हारी माता जी को दो दिन बाद रात्रि में एकांत में अकेले उसके पास भेजने के लिए कहा। बाबा की मोहनी में फंसी तुम्हारी नानी तैयार भी हो गईं पर पतिव्रता तुम्हारी माता जी असमंजस में पड़ गई। इधर ईश्वर की लीला कुछ और ही कौतुक रच रही थी। घर लौटते ही तुम्हारी माता जी की तबीयत खराब हुई और तुम्हारे पिता जी तक खबर पहुंची। राजवैद्य ने जांच कर खुशखबरी दी कि रानी सवा माह की गर्भवती हैं। महाराज शशिकांत के साथ तुम्हारी माता जी राजमहल लौट आई और दसवें महीने में चंद्रमा के समान सुंदर मुख वाली राजकुमारी का जन्म हुआ जिसका नाम ज्वाला रखा गया। नन्हीं राजकुमारी तुम जानती हो उस कन्या को? '' गुरूदेव परिहास करते हुए बोले। जूली मुस्कुराते हुए दादा मां की ओर देखते हुए बोली - '' हमारा वास्तविक नाम ज्वाला है दादी मां? '' दादी मां ने हल्की मुस्कान के साथ पलकें झुकाकर सहमति दी। तुम्हारे पिता तुम्हारे जन्म की सूचना से आनंदित हो उठे पर जैसे ही तुम्हारी दादी मां ने तुम्हें तुम्हारे पिता की गोद में देना चाहा वैसे ही तुम्हारी माता जी ने चीख कर मना करते हुए कहा कि - '' यह इनकी पुत्री नहीं है।
(जारी...)
जूली आई लव यू (भाग - 28)
नन्हीं राजकुमारी तुम्हारे पिताजी महाराज तुम्हारे जन्म की सूचना से आनंदित हो उठे पर जैसे ही तुम्हारी दादी मां ने तुम्हें तुम्हारे पिता की गोद में देना चाहा वैसे ही तुम्हारी माता जी ने चीख कर मना करते हुए कहा कि - '' यह इनकी पुत्री नहीं है। इसके पिता नारायणन हैं। '' यह सुनकर तुम्हारे दादा जी, पिताजी महाराज, दादी मां सहित सब आश्चर्यचकित रह गये। तुम्हारे पिता पर तो मानों वज्रपात ही टूट पड़ा । उसी समय मैं तपस्या पूर्ण कर हिमगिरि राज्य में प्रविष्ट हुआ था। मैंने राज्य की सीमा में पैर रखते ही अपने अतीन्द्रिय ज्ञान से वहां फैले तांत्रिक जाल का अनुभव कर लिया। मैं शीघ्र ही राजभवन की ओर चल पड़ा। राजमहल में प्रवेश करते ही मैंने पाया कि तुम्हारे दादा जी की हालत गंभीर थी. उन्हें हृदयाघात हुआ था. चहुँ ओर हाहाकार मचा हुआ था। सुबह होते होते उन्होंने प्राण त्याग दिए। तेरह दिन विधि विधान से उनके मृत संस्कारादि कार्य निपटाने के पश्चात तुम्हारे पिताजी महाराज शशिकांत मेरे चरणों में गिर पड़े। समस्या वास्तव में गंभीर थी। हर प्रकार का इलाज़ कराया जा चुका था। डॉक्टर्स, मानसिक रोग विशेषज्ञ, मौलवी साहब (ऊपरी हवा के संदेह में) सबने हाथ खड़े कर दिए थे। अब क्या किया जाए? मैं असमंजस में था। मैंने महारानी गिरीनंदिनी से कुछ प्रश्न किए। साथ ही उनके नेत्रों में पड़ रहे अपने प्रतिबिंब को गौर से देखा।। वह उल्टा प्रतिबिंब था। स्पष्ट था कि महारानी पर तांत्रिक प्रहार किया गया था। इसी कारण वे अपनी पुत्री को किसी नारायणन का बता रही थी। अब प्रश्न यह था कि नारायणन कौन है? महारानी गिरीनंदिनी इस प्रश्न पर उत्तेजित हो उठी और दहाड़ते हुए बोली - '' इसका उत्तर केवल बाबा अर्द्ध ज्ञान अहंकारी देगा। '' महारानी का उग्र रूप देखकर उपस्थित सभी जन घबरा गये पर मैं इस उग्रता के पीछे छिपे कारण तक पहुंचने का प्रयास कर रहा था। प्राणों का मोह न करते हुए मैंने भयंकर रूप धारण किए हुए महारानी गिरीनंदिनी से पुनः पूछा - यह अर्द्ध ज्ञान अहंकारी बाबा कौन है महारानी? '' इस प्रश्न पर महारानी और भी उग्र हो उठी। उसने अपने पंजे में मेरी गर्दन जकड़ ली और लाल आंखें कर बोली - ' जा मेरी माँ से पूछ।' मेरा दम घुट रहा था। मैंने सिद्ध किए हुए प्राण रक्षक मंत्र-
" ऊँ नमो हनुमते रूद्रावताराय सर्वशत्रुसंहारणाय सर्वरोग हराय सर्ववशीकरणाय रामदूताय स्वाहा|''
का जप कर जोरदार फुंकार मारी। महारानी के पंजे की जकड़ ढ़ीली पड़ गयी। वह धीरे-धीरे सामान्य हुई।
मैं महाराज शशिकांत व महारानी गिरीनंदिनी और तुम्हें हिमगिरि से लेकर देवगिरि पहुंचा। तुम्हें व तुम्हारी माता जी को गृहभवन पर ही छोड़ कर तुम्हारे नाना - नानी जी के साथ हम अर्धज्ञान अहंकारी बाबा के आश्रम पहुंचे। उनके पहरेदारों ने हमें उनके साधना कक्ष में पहुंचाया। तुम्हारे नाना नानी जी पर हमने यही जाहिर किया था कि हम अर्द्ध ज्ञान अहंकारी बाबा से बहुत प्रभावित हैं और उनके दर्शन हेतु आए हैं। तुम्हारी नानी जी को पक्का यकीन था कि बाबा अर्द्ध ज्ञान अहंकारी की कृपा से ही तुम्हारा जन्म हुआ है। मुझे देखते ही उस बाबा का माथा ठनक गया क्योंकि वह मेरा गुरु भाई निकला जो अहंकार वश हमारे गुरूदेव का अपमान कर अर्द्ध ज्ञान लेकर ही असम के मोरांग में स्थित गुरु आश्रम से भाग निकला था। उसने पर यह प्रदर्शित किया कि वह मुझे नहीं जानता है। सामान्य शिष्टाचार के पश्चात मैंने उससे कहा कि- पहचाने संगम सिंह मुझे? मैं तुम्हारा गुरूभाई। '' बाबा बने उसने न पहचानने का नाटक किया। मैं मुस्कुराया। मैंने अगला आदेश दिया जिस पर वह तिलमिला गया। मैंने कहा - '' नारायणन को मेरे कब्जे में दे दे अन्यथा यहीं तेरा कपालभाति किए देता हूं। '' मेरे उग्र रूप को देखकर वह घबरा गया। मेरी अनंत तांत्रिक शक्तियों से वह गुरू आश्रम से ही परिचित था।वह मेरे रौद्र रूप को देखकर वहां से भागने का प्रयास करने लगा। मैंने महाराज शशिकांत को कक्ष का द्वार बंद करने का संकेत किया। यह देखकर वह बाबा अर्द्ध ज्ञान अहंकारी मेरे चरणों में गिर पड़ा । यह सब घटित होता देखकर नन्हीं राजकुमारी तुम्हारे नाना नानी जी आश्चर्यचकित रह गये। मैंने अपने मायावी मित्र को जिसे केवल मैं और अर्द्ध ज्ञान अहंकारी देख सकते थे; उसी कक्ष में चौखट में घुसे महाप्रेत नारायणन को पकड़कर निकालने की आज्ञा दी। पकड़े जाते ही वह प्रेत अर्द्ध ज्ञान अहंकारी के प्रति अपशब्दों का प्रयोग करते हुए सच उगलने लगा कि कैसे महारानी गिरीनंदिनी को अपने जाल में फंसाने के लिए उसने उनपर महाप्रेत की सवारी कराई थी। मैंने तुरंत अपनी मंत्र शक्ति से उस महाप्रेत को भस्म कर दिया। इधर महाप्रेत भस्म हुआ उधर महारानी चेतना शून्य हो गयी। थोड़ी देर में वह स्वस्थ चित्त होकर चेतनामयी हो गयी। अब वे महाप्रेत की सवारी से मुक्त हो चुकी थी। मेरे मायावी मित्र ने अर्द्ध ज्ञान अहंकारी को पटक पटक अधमरा कर दिया। मैंने गुरु भाई होने के कारण उसे मर्यादित आचरण करने की सीख देकर मायावी मित्र से कहकर वहीं छुड़ा दिया। हम सब वापस महारानी गिरीनंदिनी के पास गृहभवन लौट आये। महारानी ने स्वयं तुम्हें तुम्हारे पिताजी महाराज शशिकांत की गोद में दिया तो उनके आनंद का पारावार न रहा। तुम्हारी नानी मां ने अत्यंत ग्लानि के साथ महाराज शशिकांत से क्षमा मांगी क्योंकि उनका मानना था कि बाबा अर्द्ध ज्ञान अहंकारी के पास वे ही अपनी पुत्री को लेकर गयी थी। महाराज शशिकांत ने अत्यंत विनम्रता से उन्हें प्रणाम कर राजभवन लौटने की अनुमति मांगी। राजभवन लौटकर हर्षोल्लास के साथ दिन व्यतीत होने लगे। तुम्हारे जैसी दिव्य गुण सम्पन्न पुत्री को पाकर तुम्हारे माता पिता के हर्ष की सीमा नहीं थी। तुम्हारे दाहिने हाथ की हर अंगुली के स्पर्श से एक चमत्कार होता है जैसे कनिष्ठिका के स्पर्श से तुम हर तांत्रिक जाल को काट सकती हो। रणबीर सिंह का प्रकरण स्मरण हैं न तुम्हें? गुरूदेव के यह प्रश्न करते ही जूली मानो अतीत के गहरे कुएं से निकलते हुए बोली - '' जी गुरूदेव! हमें सब याद है पर उसी समय कैप्टन ने कोई मंत्र का जप भी किया था। वह क्या था गुरूदेव? गुरूदेव हल्की रहस्यमय मुस्कान के साथ बोले - 'वह कूटशब्द है नन्हीं राजकुमारी। जैसे पासवर्ड होते हैं। वह पासवर्ड या तो महारानी गिरी नंदिनी को ज्ञात है या फिर कैप्टन के पिता जी मेजर को। मेजर को तुम्हारे चौथे जन्म दिवस पर मेरे द्वारा महारानी गिरी नंदिनी को प्रदत्त एक काला लैब्राडोर श्वान उपहार में दिया गया था। जीवन के झंझावात में तुम सब कुछ विस्मृत कर बैठी हो नन्हीं राजकुमारी। महारानी मेजर को इतना ज्यादा स्नेह करती थी कि तुम्हारी दिव्य शक्तियों के संचालन का कूटशब्द उन्होंने केवल मेजर को बतलाया था। मेजर ने ही अपने पुत्र कैप्टन को वह पासवर्ड तब बताया जब मैंने कैप्टन को तुम्हारे पास भिजवाया था। भगवान शिव व माता पार्वतीजी के वरदान स्वरूप तुम्हें तुम्हारी विस्मृत शक्तियों का पुनः स्मरण मैं आज तुमको कराउंगा पुत्री । .... (जारी)
जीवन के झंझावात में तुम सब कुछ विस्मृत कर बैठी हो नन्हीं राजकुमारी। महारानी मेजर को इतना ज्यादा स्नेह करती थी कि तुम्हारी दिव्य शक्तियों के संचालन का कूटशब्द उन्होंने केवल मेजर को बतलाया था क्योंकि तब तुम बहुत छोटी थी । मेजर ने ही अपने पुत्र कैप्टन को वह पासवर्ड तब बताया जब मैंने कैप्टन को तुम्हारे पास भिजवाया था। भगवान शिव व माता पार्वतीजी के वरदान स्वरूप तुम्हें तुम्हारी विस्मृत शक्तियों का पुनः स्मरण मैं आज तुमको कराउंगा पुत्री । वास्तविकता तो यह है कि तुम्हारा जन्म दुष्टों के विनाश व धर्म की स्थापना के लिए ही हुआ है। जब मैं हिमालय की गोद में बैठकर कठोर तपस्या कर रहा था, उसी समय भगवान शिव व माता पार्वतीजी का आदेश हुआ कि-'' हिमगिरि राज्य का राजवंश अत्यंत धर्मार्थ व कल्याणकारी वंश है। आप आत्मिक रूप से शिवलोक आयें और हमारी विशिष्ट भक्त एक पुण्यात्मा को अपने साथ पृथ्वी पर ले जायें। '' नन्हीं राजकुमारी तुम्हें यदा कदा नेत्र बंद करने पर आभास हुआ होगा कि तुम किसी का हाथ पकड़ कर ऊंचें पर्वत से नीचे उतर रही हो। वह मेरा ही हाथ था। मां के गर्भ में तुम्हारा प्रवेश सत्तासी वें दिन हुआ। तुम्हारी दिव्य शक्तियों का प्रभाव वैसे वैसे ही बढ़ने लगा जैसे जैसे तुम बड़ी होने लगी। तुम्हारे प्रथम जन्म दिवस पर भगवान शिव व माता पार्वती जी का मुझे आदेश हुआ कि मैं महारानी
गिरी नंदिनी को इस विषय में सम्पूर्ण जानकारी प्रदान करूं। मैंने उनसे भेंट की और बताया कि - '' नन्हीं राजकुमारी ज्वाला अर्थात तुममें कुछ दिव्य शक्तियां है। इनके दाहिनी हाथ का अंगूठा कहीं पर स्पर्श कराने से वह व्यक्ति, वस्तु पत्थर का हो जाता है, तर्जनी स्पर्श से आग पानी बन जाती, मध्यमा स्पर्श से यह किसी भी व्यक्ति को पशु, पशु को मानव बना सकती हैं, अनामिका स्पर्श से राजकुमारी स्वयं कोई भी रूप धारण कर सकती हैं और कनिष्ठिका की दिव्यता तो विदित है ही रणबीर सिंह के प्रसंग से कि कैसे उन्हें पत्थर से पुनः जीवित मानव देह में तुमने परिवर्तित किया किंतु यह दिव्य शक्तियां तभी कार्यान्वित होंगी जब कूट शब्द का साथ साथ जप किया जाएगा। नन्हीं राजकुमारी तब तुम बहुत छोटी थी इसलिए कूट शब्द तुमको ज्ञात नहीं है और अब जब तक महारानी गिरीनंदिनी स्वयं तुम्हें नहीं बताती हैं तब तक न तो मेजर और न ही कैप्टन तुम्हें कूट शब्द बता सकते हैं क्योंकि महारानी की यही आज्ञा थी कि मेजर अपने वंशज के अतिरिक्त किसी पर कूटशब्द उजागर न करे। नन्हीं राजकुमारी अब सावधान चित्त होकर मेरे द्वारा बताई जाने वाली बात को सुनिए।'' गुरुदेव के यह कहते ही जूली व दादी मां सावधान मुद्रा में एकाग्रचित्त होकर गुरूदेव की ओर देखने लगी।
गुरूदेव गंभीर स्वर में बोले - '' नन्हीं राजकुमारी ध्यान से सुनिए। आज से करीब पांच वर्ष पूर्व पूरा हिमगिरि राज्य आपके पांचवें जन्म दिवस की तैयारियों में धूमधाम से लगा हुआ था। नन्हीं राजकुमारी मैंने तुम्हारी जन्म कुंडली स्वयं बांची। गृह नक्षत्र बता रहे थे कि तुम्हारे पांचवें वर्ष में प्रवेश करते ही तुम पर व तुम्हारे माता-पिता पर कोई संकट आने वाला है। अपने गुरूदेव द्वारा प्रदत्त विद्या के कारण मैं भविष्य में घटित होने वाले अनिष्ट का आभास कर पा रहा था । मैंने तुम्हारी सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग, उज्जैन में तुम्हारे द्वारा पूजा-अर्चना करने का कार्यक्रम बनाया और तुम्हें तुम्हारी दादी मां के साथ लेकर उज्जैन के लिए निकल लिया। नन्हीं राजकुमारी ऐसी स्थिति के संदर्भ में गोस्वामी तुलसीदास जी ने सत्य ही लिखा है -
तुलसी भरोसे राम के निर्भय होके सोये।
अनहोनी होनी नहीं, होनी होय सो होये।।
हमारे वहां से निकलते ही उस दुष्ट अर्धज्ञान अहंकारी ने पूर्व में हुई अपनी पराजय के प्रतिशोध वश महाराज शशिकांत व महारानी गिरी नंदिनी पर शक्तिशाली तांत्रिक प्रहार ' मारण ' का प्रयोग कर दिया। यह तीक्ष्ण तांत्रिक अग्नि अस्त्र अदृश्य होते हुए भी उसी प्रकार लक्ष्य को भेद डालता है जैसे बंदूक से चली गोली।जिस प्रकार यदि किसी व्यक्ति को विष खिला दिया जाये अथवा अस्त्र-शस्त्र का प्रहार कर उसके जीवन को संकट में डाला जा सकता है ; उसी प्रकार यह 'मारण' तांत्रिक प्रहार के अंतर्गत 'घात' व 'कृत्या' के प्रयोग द्वारा लक्षित व्यक्ति का जीवन संकट में डाला जा सकता है। इस तांत्रिक प्रहार के अंतर्गत बीमारी के भयानक कीटाणु इकट्ठे होकर व्यक्ति विशेष पर आक्रमण कर उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता को नष्ट कर उसके शरीर पर कब्जा कर उसके प्राण संकट में डाल देते हैं। अर्धज्ञान अहंकारी के प्रहार करते ही महाराज व महारानी खून की उल्टियां करने लगे। राजवैद्य, सभी डॉक्टर्स ने हर प्रकार का इलाज़ किया पर विफल रहे।पूरे राज्य में मातम छाने लगा। इसी समय अर्द्धज्ञान अहंकारी ने हिमगिरि राज्य के राजभवन में प्रवेश किया। उसने मंत्रों की शक्ति का प्रयोग कर मारण प्रहार के दुष्प्रभाव को समाप्त कर दिया। महाराज व महारानी स्वस्थ हो गए। इस तरह अर्द्धज्ञान अहंकारी ने महाराज व महारानी का विश्वास जीत लिया। कोई भी उस कपटी के षड्यंत्र को न समझ सका। अगले दिवस उसने महाराज व महारानी को अकेले ही हिमगिरि राज्य की सीमा पर स्थित मंदिर में आने के लिए कहा। कृतज्ञ महाराज व महारानी उस पाखंडी पर विश्वास कर बिना अंगरक्षकों के मंदिर की ओर चल पड़े। उन्हें मालूम नहीं था कि उनका स्वामी भक्त श्वान मेजर छिपकर उनका पीछा कर रहा था।उनके मंदिर में पहुंचते ही अर्ध ज्ञान अहंकारी के चेलों ने उन्हें बंदी बना लिया और एक राजाज्ञा पर महाराज शशिकांत के हस्ताक्षर करा लिए कि मैं शशिकांत यह घोषणा करता हूं कि मैं अपनी धर्मपत्नी महारानी गिरिनंदिनी के साथ हिमालय में तपस्या के लिए जा रहा हूं। मेरे लौटकर आने तक बाबा अर्द्धज्ञान अहंकारी ही राज्य की उत्तराधिकारी राजकुमारी ज्वाला का संरक्षक बनकर राज्य व्यवस्था संभालेगा। '' इसके पश्चात अर्द्धज्ञान अहंकारी ने महारानी गिरिनंदिनी से उज्जैन में तुम्हारी दादी मां को फोन कर यह कहने के लिए कहा कि '' राजकुमारी ज्वाला को शीघ्र हिमगिरि राज्य वापस ले आयें। '' इसके लिए महारानी तैयार नहीं हुई। महाराज ने यहां तक बोल दिया कि - '' भले ही तुम हमारे प्राण ले लो किंतु हम अपनी बिटिया को तुम्हारे चंगुल में न फंसने देंगें।'' मेजर ने यह विषम परिस्थिति में बहुत चतुराई से काम लिया। उसने मेरे साथ मानसिक संवाद के माध्यम से यह सूचना तुरंत साझा की। महाराज व महारानी के दृढ़ निश्चय के आगे उस दुष्ट की एक न चली। उसने अपने खबरी उज्जैन रवाना कर दिये ताकि नन्हीं राजकुमारी तुम्हें कैद कर मौत के घाट उतार दिया जाये और हिमगिरि का राज्य सदा सर्वदा के लिए उस नीच का हो जाये।
(जारी....)
उस नीच ने महाराज व महारानी को बंधवाकर उसी मंदिर के गर्भ गृह में कैद कर दिया और स्वयं हिमगिरि राज्य के सेना प्रमुख व मंत्रियों की एक गोपनीय बैठक बुलाकर महाराज शशिकांत का हस्ताक्षरित वह राजपत्र सभा के सामने रखा। महाराज के अत्यंत विश्वसनीय सेना प्रमुख महावीर इंद्रसिंह को इस बात पर तनिक भी विश्वास नहीं हुआ कि महाराज शशिकांत सब कुछ त्यागकर तपस्या के लिए चले गए हैं किंतु उन्होंने अर्धज्ञान अहंकारी को यह आभास नहीं होने दिया कि उन्हें उस पर संदेह हो गया है ।सभा समाप्ति के पश्चात जब वह अपने भवन पहुंचे वहां मेजर पहले से उपस्थित था। मेजर ने उनके समक्ष अर्द्धज्ञान अहंकारी के षड्यंत्र का भंडाफोड़ कर दिया। वे क्रोध में जल उठे। उस समय उनका पुत्र रणबीर सिंह ग्यारह दिवसीय कोबरा गोल्ड मरीन्स ट्रेनिंग के लिए यू एस गया हुआ था। यूएस मरीन्स में ट्रेनिंग के दौरान जवानों को कोबरा का खून पिलाना, सांप के अंडों को मुंह से फोड़ना, कोबरा के पूंछ यानी के पीछे की तरफ का हिस्सा भी खाना आदि सिखाया जाता है । सेना प्रमुख इंद्र सिंह असमंजस में पड़ गए. करें तो क्या करें. पुत्र रणबीर के अतिरिक्त इस संबंध में कोई रणनीति बनाने के लिए अन्य किसी पर वह विश्वास नहीं कर सकते थे. मेजर को उन्होंने मेरे आश्रम में जाने का आदेश दिया क्योंकि वह जानते थे कि अब अर्ध ज्ञान अहंकारी का अगला कदम महाराज शशिकांत के विश्वासपात्रों का वध करना होगा। स्वयं इंद्रसिंह ने हिमगिरि की सेना को गुप्त रूप से राज्य की सीमा पर स्थित मंदिर को घेरने का आदेश भिजवाया। अर्द्धज्ञान अहंकारी के गुप्तचरों ने यह सूचना उस तक पहुंचा दी। रात्रि के बारह बजे जब सब ओर अंधकार व सन्नाटा था इंद्रसिंह ने मंदिर में प्रवेश किया। उनके साथ दो सैनिक मशाल लिए हुए थे। शीघ्र ही उन्होंने गर्भगृह में प्रवेश किया। महाराज व महारानी अर्ध चैतन्य अवस्था में वहां बांध कर रखे गये थे। इंद्रसिंह ने पहले झुककर अभिवादन किया और फुर्ती के साथ उनके बंधन खोल दिए। गर्भगृह से निकल कर ज्यों ही वे सभी बाहर आये तो देखते हैं कि अर्ध ज्ञान अहंकारी अपने अनेक चेलों के साथ वहां खड़ा हुआ था। उस नीच ने साधना से अर्जित तांत्रिक सिद्धियों का दुरुपयोग कर महाराज, महारानी व इंद्रसिंह सहित मंदिर के अंदर बाहर उपस्थित हर व्यक्ति को पत्थर का हो जाने का श्राप दे दिया। '' यह सुनते ही जूली के मुख से चीख निकल पड़ी और वह आह भरते हुए बोली- '' नहीं गुरूदेव ऐसा नहीं हो सकता। मेरे मां व पिताजी महाराज पत्थर के नहीं बन सकते। कहिये ना गुरूदेव कि यह मिथ्या है - मिथ्या है - मिथ्या है। '' यह कहते हुए वह रो पड़ी। दादी मां ने पीछे से उठकर आकर उसके पास बैठकर उसे संभाला। गुरूदेव सहज भाव से बोले - '' नन्हीं राजकुमारी यह मिथ्या नहीं है। तुमने संभवतः सिद्ध पुरूषों व सती नारियों द्वारा श्राप दिए जाने के अनेक प्रसंग पढ़े व सुने होंगें। नन्हीं राजकुमारी श्राप देना भी एक विद्या है जिससे प्राचीन भारत के अनेक विद्वत जन परिचित थे। श्रापित व्यक्ति का घोर अनिष्ट करने की क्षमता श्राप देने वाले के भीतर होती थी। जानती हो कैसे? श्राप देने वाला अपने भीतर समायी आत्मिक शक्तियों को एक निश्चित लक्ष्य के लिए एकजुट कर संबंधित व्यक्ति के अनिष्ट हेतु प्रहार करता है और उसका वैसा अनिष्ट अनिवार्य रूप से हो भी जाता जैसे राजा दशरथ के पूर्वज महाराज सगर के साठ हजार पुत्रों को स्वयं का निरादर किए जाने पर कपिल मुनि ने श्राप द्वारा भस्म कर दिया था। ऐसे ही एक राजस्थान के बाड़मेर जिले के हाथमा गांव में नौ सौ वर्ष पुराना रहस्यमयी किराड़ू मंदिर है जिसके बारे में मान्यता है कि एक सिद्ध संत ने क्रोध में आकर वहां के समस्त ग्रामीणों को पत्थर बनने का श्राप दे दिया था । नन्हीं राजकुमारी बुजुर्ग बताते हैं कि यह लगभग नौ सौ साल पुरानी बात है। तब राजस्थान में परमार शासकों का शासन था। उसी समय वहां एक सिद्ध संत ने डेरा डाला।यहां कुछ दिन निवास करने के पश्चात वह संत तीर्थों के दर्शन के लिए चला गया इस विश्वास के साथ कि ग्रामीण उसके शिष्यों के खान पान का ध्यान रखेंगे किंतु संवेदनाहीन ग्रामीणों ने उनका ध्यान नहीं रखा फलस्वरूप शिष्य अनेक व्याधियों से ग्रसित हो गये । तीर्थयात्रा कर वापस लौटे संत ने जब अपने शिष्यों की यह दुर्दशा देखी तो वह क्रोधित हो उठे। उसी समय उन्होंने सभी ग्रामीणों को पत्थर का हो जाने का श्राप दे दिया। आज भी ग्रामीण संध्याकाल के पश्चात मंदिर के आस पास नहीं फटकते क्योंकि उन्हें विश्वास है कि वह भी पत्थर के हो जायेंगे। नन्हीं राजकुमारी सिद्धों के श्राप का ऐसा ही भय व परिणाम होता है।अर्द्ध ज्ञान अहंकारी ने भी अपनी सिद्धियों का दुरुपयोग करते हुए श्राप देकर सभी उपस्थित विपक्षी जन को पत्थर का बना दिया। यहां इस विचार की महत्ता नहीं कि उसने नैतिकता की दृष्टि से उचित किया या अनुचित क्योंकि उसके जीवन का एक ही सिद्धांत है - स्वार्थ सर्वोपरि। इसके पश्चात वह एक विशेष विमान द्वारा महाराज - महारानी व इंद्रसिंह को सिक्किम के उत्तरी भाग में स्थित लाचुन व थांग घाटी के पर्वतीय इलाके में सबसे अधिक ऊंचाई पर स्थित एक मंदिर में ले गया। इसी कारण मैंने तुम्हारी दादी मां व तुम्हारे रहने के लिए एक विशिष्ट कॉटेज का निर्माण वहां कराया। ग्यारह दिवसीय कोबरा गोल्ड मरीन्स ट्रेनिंग पूरी कर जब रणबीर सिंह यू एस से वापस हिमगिरि राज्य पहुंचा तो महाराज महारानी व पिता के साथ घटित दुर्दांत घटना का उसे पता चला। वह गुप्त रूप से पर्वत शिखर पर स्थित मंदिर तक पहुंचने में सफल रहा किन्तु दुर्भाग्य वश अर्द्ध ज्ञान अहंकारी की दृष्टि उस पर पड़ गयी। वह बचने के लिए कॉटेज की ओर भागा पर अर्द्ध ज्ञान अहंकारी ने तांत्रिक प्रहार कर उसे एक चट्टान के भीतर कैद कर दिया जिसे फूलों के एक वृक्ष से आवृत कर दिया। इससे आगे का प्रसंग तुम जानती ही हो नन्हीं राजकुमारी। '' जूली ने सहमति में सिर हिलाकर गुरूदेव के कथन का समर्थन किया। गुरूदेव वार्ता जारी रखते हुए बोले - 'नन्हीं राजकुमारी तुम्हें उस दिन पर्वत पर घूमने के लिए भेजने का एक कारण तुम्हारी दिव्य शक्ति का परीक्षण करना भी था। अब दादी मां के साथ जाकर तुम विश्राम करो। प्रातः श्री रामेश्वरम मंदिर के दर्शन कर शत्रुओं पर विजय का वरदान प्राप्त करना तत्पश्चात मैं स्वयं तुम्हें कुछ दिव्य शक्तियां प्रदान करूंगा जिनकी सहायता से तुम शीघ्र ही शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर अपने मां व पिताजी महाराज के दर्शन करने में समर्थ हो पाओगी। जय श्री राम। हर हर महादेव। '' जूली व दादी मां ने गुरुदेव के पावन चरणों में प्रणाम किया व उनकी आज्ञा लेकर आश्रम में अपने लिए निर्धारित कक्ष की ओर कैप्टन व वेणु के साथ साथ चल पड़ी।
(जारी...)
गुरूदेव के आश्रम के अपने कक्ष में पहुंचने पर दादी मां, जूली व कैप्टन के लिए वेणु भोजन का प्रबंध करने के लिए आश्रम के भोजनालय में गया। शीघ्र ही सभी के लिए भोजन
कक्ष में पहुंच गया. भोजन के पश्चात दादी मां ने जूली व कैप्टन के माथे को चूमते हुए कहा - '' मेरे बच्चों यह हमारा सौभाग्य है कि आज हम इस पुण्य भूमि के दर्शन का आनंद प्राप्त कर रहे हैं। कैप्टन तो पूर्व में ही हिमगिरि राज्य में घटित दुर्घटनाओं से परिचित था किंतु आज लिटिल प्रिंसेस तुम भी सब कुछ जान गयी हो। अब आवश्यकता है धैर्य के साथ गुरूदेव द्वारा दिए जाने वाले निर्देशों का दृढ़ता के साथ पालन करने का। मुझे लिटिल प्रिंसेस तुम्हारे विवेकी व्यक्तित्व पर पूर्ण विश्वास है कि तुम गुरूदेव द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन भलीभांति करते हुए अपने पिताजी महाराज व मां को तो उस दुष्ट अर्द्ध ज्ञान अहंकारी के चंगुल से तो स्वतंत्र कराने में सफल हो पाओगी वरन् सम्पूर्ण हिमगिरि राज्य को पूर्व की भांति सुख- वशांति व समृद्धि से युक्त करने में महाराज व महारानी का सहयोग भी करोगी और इस कार्य में कैप्टन सदैव तुम्हारी छाया बनकर तुम्हारी रक्षा करता रहेगा। क्यों कैप्टन? '' बालक रूप धारण किए हुए कैप्टन ने मुस्कुराते हुए हामी भरी तभी कक्ष के द्वार पर किसी ने कुंडी खड़काई। दादी मां मुस्कुराते हुए बोली - '' कैप्टन देखो जरा मैंने तुमसे मिलने के किसे बुलाया है? '' कैप्टन दादी मां के वचन के आशय को कुछ कुछ समझते हुए द्वार खोलने के लिए बढ़ा। द्वार पर अपने पिता मेजर को देखते ही वह भावुक हो उठा।चरण छूने के पश्चात वह अपने पिता के गले लगकर रो पड़ा। जूली की आंखों में पिता व पुत्र के भावुक मिलन को देखकर आंसू भर आये। मानव रूप धारण किए हुए मेजर ने कक्ष में प्रवेश करते ही दादी मां व जूली को झुककर अभिवादन किया। दादी मां ने उसके सिर पर हाथ रखकर उसे दीर्घायु होने का आशीर्वाद दिया और बोली - '' मेजर तुम्हारी ही तरह कैप्टन भी बहुत बहादुर, समझदार व वफादार है। यदि यह हमारे साथ न होता तो आज हम जीवित न होते। ड्रोन का हमला हो,मायावी नागिन हो, शत्रु के ड्राइवर का षडयंत्र हो, अर्द्धज्ञान अहंकारी का तांत्रिक इंद्रजाल प्रहार हो सब जगह कैप्टन ने हमारी रक्षा की। '' यह कहते हुए दादी मां ने पुनः पुनः कैप्टन का भाल चूम लिया। मेजर अत्यंत कृतार्थ होते हुए बोला - '' रानी माता जी महाराज यह कैप्टन का कर्तव्य है कि वह अपने प्राण देकर भी नन्हीं राजकुमारी की रक्षा करे। महारानी गिरिनंदिनी जी की पुत्री राजकुमारी ज्वाला कैप्टन की स्वामिनी ही नहीं बहन के समान प्रिय भी हैं। मुझे आज अपने रक्त पर गर्व हो रहा है और भविष्य में यदि यह महाराज शशिकांत व महारानी गिरिनंदिनी को उस दुष्ट के चंगुल से स्वतंत्र कराने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है तब मैं निश्चित रूप से अपने स्वामी व स्वामिनी के प्रति अपने कर्तव्य के भार से उऋण हो पाउंगा। '' मेजर की इस बात पर दादी मां व जूली ने प्रसन्नता प्रकट की व कैप्टन ने मन व मस्तिष्क में अपना कर्तव्य निभाने का संकल्प ले लिया। मेजर ने एक बार पुनः कैप्टन को गले लगाकर व दादी मां और जूली को झुककर अभिवादन कर विदा ली। इसके पश्चात तीनों जन सोने के लिए पृथ्वी पर बिछे अपने अपने आसनों पर सो गए।
अगले दिन प्रातः उठकर शीघ्रता से श्री रामेश्वरम मंदिर के दर्शन हेतु दादी मां व जूली, कैप्टन के साथ साथ भानु सिंह, चंद्र प्रताप व वेणु भी पहुंचे। जूली ने श्री रामेश्वरम के दर्शन कर अधर्मी अर्द्धज्ञान अहंकारी पर विजय व धर्मात्मा पिताजी महाराज व महारानी मां सहित सभी हिमगिरि वासियों की सकुशलता का वरदान मांगा। प्रभु दर्शन के पश्चात गुरूदेव के सानिध्य में जूली ने धर्म व राजनीति के गूढ़ तथ्यों को जाना। इसके पश्चात गुरूदेव ने जूली को एकाग्रचित्त होने का निर्देश देते हुए कहा कि - '' राजकुमारी ज्वाला अब जो कुछ मैं तुमसे कहने जा रहा हूं उसे ध्यान से सुनिए। योगशास्त्र में अन्य अनेक सिद्धियों के साथ साथ पूर्वजन्म ज्ञान सिद्धि योग भी है। अध्यात्म के पथिक के लिए यह सिद्धि इस मायने में महत्वपूर्ण है कि जिन कार्यों व ज्ञानार्जन का वह पूर्व जन्म में अभ्यास कर चुका है, उन पर इस जन्म में समय लगाने व परिश्रम करने से बच जाता है। साधना कठिन है पर उपयोगी है। आज मैं अपने निर्देशन में यह साधना तुम्हें कराता हूं क्योंकि अर्द्धज्ञान अहंकारी पर विजय प्राप्त करने का शुभ मूहुर्त निकट है। राजकुमारी सर्वप्रथम तुम चित्त को स्थिर करो। अब मन की भटकन व श्वासों को स्थिर करते हुए जाति स्मरण करते हुए अपनी दिनचर्या को उल्टे क्रम में स्मरण करने का प्रयास कीजिए। व्यर्थ की स्मृतियों को हटाती जाईये। '' जूली नेत्रों को बंद कर गुरूदेव की आज्ञा का एकाग्रता के साथ अक्षरशः पालन करती गई। उसके मस्तिष्क से ज्यों ज्यों अनुपयोगी ज्ञान, तर्क व स्मृतियों की धूल हटती गई वैसे ही उनके नीचे दबी मूल प्रज्ञा जाग्रत होती गई। मूल प्रज्ञा के जागरण के साथ पूर्व जन्मों का जाति स्मरण ज्ञान धीरे धीरे जूली के मस्तिष्क में कौंधने लगा। वह नेत्र बंद किए हुए ही बोली - '' विकार रहित मन व मस्तिष्क से मैं जाति प्रयोग स्मरण में सफल हो रही हूँ। '' गुरूदेव यह सुनकर अत्यंत उत्साहित हो उठे और बोले - '' राजकुमारी क्या पूर्व जन्म में अष्ट सिद्धियों की ज्ञाता रही हो? '' जूली ने सहज भाव से उत्तर दिया - '' हाँ गुरूदेव । अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व - इन सभी अष्ट सिद्धियों की न केवल मैं ज्ञाता हूँ बल्कि धर्म की स्थापना के लिए कई बार मैं इनका प्रयोग कर चुकी हूँ। इनके अतिरिक्त हनुमानजी की भांति दूरश्रवण, दूरदर्शनम, कामरूपम, परकायाप्रवेशनम आदि अन्य अनेक सिद्धियों पर भी मेरा अधिकार है। मेरे पूर्व जन्म के पूज्य गुरूदेव ने दो अत्यंत परम कल्याणकारी विद्याएं भी मुझे प्रदान की हुई हैं - बला विद्या ( साधक भूख प्यास आदि विकारों से रहित करने वाली विद्या) व अतिबला विद्या (बिना थकावट योद्धा को लंबे समय तक युद्ध करने का रण कौशल प्रदान करने वाली विद्या)। '' गुरूदेव के मुख से अनायास ही निकला - साधु साधु। राजकुमारी ज्वाला अब नेत्र खोल लीजिए। '' गुरूदेव के निर्देश पर जूली ने नेत्र खोल लिए।
(जारी...)
जूली को नेत्र खोलते ही गुरूदेव के तेजस्वी मुख के दर्शन हुए मानो साक्षात भगवान शिव ही विराजमान हों। सत्य भी है हर गुरूदेव आदि गुरू भगवान शिव के ही तो स्वरूप हैं। गुरूदेव सहज मुस्कान के साथ बोले - '' राजकुमारी ज्वाला मैं संतुष्ट हूं कि आप पूर्व जन्मों से ही अनेक सिद्धियों से युक्त हैं। इसी कारण भगवान शिव व माता पार्वतीजी ने महाराज शशिकांत व महारानी गिरिनंदिनी की संतान के रूप में तुम्हारा चयन किया है। मैं केवल एक लक्ष्य तुम्हें प्रदान करूंगा। उसे कैसे प्राप्त करना है?क्या रणनीति बनानी है? इसका निश्चय तुम स्वयं करोगी। किसका सहयोग लेना है? इसका निश्चय भी तुम स्वयं करोगी। शत्रु को क्या सजा देनी है? यह तुम स्वयं निर्धारित करोगी। अब मैं केवल एक प्रश्न करूंगा राजकुमारी - तुम अपने सहयोगी के रूप में किसका चुनाव करोगी? रणबीर सिंह, चंद्र प्रताप, भानु सिंह या कैप्टन? जूली बिना एक क्षण गंवाये बोली - '' कैप्टन का गुरूदेव। वह मेरा सबसे प्रिय मित्र है और मेरी दिव्य शक्तियों के संचालन हेतु जो पासवर्ड है, वह उसे ज्ञात है। '' गुरूदेव जूली के प्रति उत्तर से पूर्व में ही परिचित थे। वे मुस्कुरा भर दिए। गुरूदेव ने वेणु को आवाज़ लगाई। वह दौड़ते हुए पहुंचा। गुरूदेव ने उससे कैप्टन को बुलाकर लाने के लिए कहा। वह क्षण भर में ही कैप्टन को ले आया। कैप्टन ने गुरूदेव के चरणों में प्रणाम किया और विनम्र वाणी में बोला - '' गुरूदेव आदेश करने की कृपा करें। '' गुरूदेव हर्षित स्वर में बोले - '' कैप्टन जिस घड़ी की मुझे प्रतीक्षा थी वह आज उपस्थित है। राजकुमारी ज्वाला ने मेरे द्वारा दिए जाने वाले लक्ष्य की प्राप्ति हेतु एकमात्र तुम्हें अपना सहयोगी चुना है। अब तुम दोनों के लिए यह जान लेना आवश्यक है कि तुम्हारा लक्ष्य क्या है?
तुम दोनों को अगले चौबीस घंटे के भीतर अर्द्धज्ञान अहंकारी को पराजित कर महाराज शशिकांत व महारानी गिरिनंदिनी के साथ साथ सम्पूर्ण हिमगिरि राज्य को उसके आतंक से मुक्त कराना है। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। विजयी भवः। '' यह कहकर गुरूदेव ने जूली व कैप्टन को उनके मिशन पर जाने के लिए शुभकामना दी। जूली व कैप्टन ने गुरूदेव का अभिवादन कर उनसे विदा ली। दोनों दादी मां के पास उनके आशीर्वाद हेतु उनके कक्ष में पहुंचे। गुरूदेव द्वारा दिए गए लक्ष्य के बारे में उन्हें बताकर अपने मिशन पर निकलने के लिए उनसे विदा मांगी। दादी मां ने उन दोनों को बाहों में भरकर कहा - '' मेरे बच्चों वह अर्द्धज्ञान अहंकारी बहुत दुष्ट है। तांत्रिक सिद्धियों का दुरुपयोग वह बढ़ चढ़कर करता है। सावधान रहकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करना। मेरा आशीर्वाद सदैव सर्वदा सर्वत्र तुम्हारे साथ है।। '' यह कहकर दादी मां ने दोनों के भाल चूम लिए। जूली व कैप्टन ने भी उनका बहुत प्रगाढ़ आलिंगन किया। इसके पश्चात जूली व कैप्टन ने आश्रम के विशाल वट वृक्ष के नीचे बैठकर अर्द्धज्ञान अहंकारी को परास्त करने की एक योजना बनाई जिसे उन्होंने नाम दिया - मिशन सत्यमेव जयते। योजनानुसार कैप्टन ने अपना आकार इतना बढ़ा लिया कि जूली उस पर आराम से सवार हो सकती थी। जूली के सवार होते ही कैप्टन ने '' जय श्री गणेश व जय भवानी '' का उद्घोष कर ऊंची उड़ान भरी।
कैप्टन ने जूली को सूचित किया - '' लिटिल प्रिंसेस मैंने लघिमा सिद्धि का प्रयोग कर अपने शारीरिक भार को हवा जैसा हल्का कर लिया है। अब हम क्षण भर में अपने गंतव्य स्थान पर पहुंच जायेंगे जैसे हनुमान जी लंका पहुंचे थे। आप का भी तनिक सा भार मुझे अनुभव नहीं हो रहा। संभवतः आपने अणिमा व लघिमा सिद्धि का उपयोग किया है जैसे माता सीता की खोज करते हुए अशोक वाटिका में अशोक वृक्ष के पत्तों पर हनुमान जी सूक्ष्म रूप धारण कर भाररहित होकर विराजे थे। '' जूली ने ' हम्म' कहकर बुद्धिमत्ता से सम्पन्न कैप्टन के विश्लेषण पर हामी भरी। श्री रामेश्वरम से सिक्किम के उत्तरी भाग में स्थित लाचुन व थांग घाटी के उच्चतम पर्वत शिखर पर स्थित अर्द्ध ज्ञान अहंकारी के तांत्रिक क्रीड़ा स्थल उस मंदिर के समीप पहुंचते ही कैप्टन ने आकाश से पहाड़ी पर उतरते हुए जूली से धीमी आवाज़ में कहा - '' लिटिल प्रिंसेस हम अर्द्धज्ञान अहंकारी के तांत्रिक कार्यक्षेत्र में प्रविष्ट हो चुके हैं। मैं भी आपके समान अणिमा सिद्धि का उपयोग कर अणु के समान सूक्ष्म शरीर धारण कर लेता हूं। '' जूली के कैप्टन पर से उतरते ही कैप्टन ने सूक्ष्म रूप धारण कर लिया। अत्यंत सूक्ष्म शरीर के साथ जूली व कैप्टन ने उस मंदिर में प्रवेश किया। मंदिर की रक्षा कर रहे दो महाप्रेतों ने उन्हें रोकते हुए कहा - '' अरे चुन्नी चुन्नू कहाँ घुसे जाते हो? सच सच बताओ कौन हो तुम? '' उनके इस प्रश्न पर जूली व कैप्टन ने जोरदार ठहाका लगाया और कैप्टन ने तुरंत अपने गले में पड़ा अस्थिमाल निकाला। महाप्रेत की हालत अघोरियों के अस्थिमाल को देखते ही पतली हो गई। जूली ने तुरंत वही बैठकर क्रिया कर अलख उठाई और अलख भोग लगाते ही खबीस उपस्थित हो गया। जूली ने खबीस को महाप्रेतों की मरम्मत का आदेश दिया फिर क्या था महाप्रेत आगे आगे और जूली का खबीस पीछे पीछे। महाप्रेत बचने के लिए अर्द्ध ज्ञान अहंकारी के साधना कक्ष में घुस गये। खबीस वहीं से वापस लौटकर जूली के पास आ गया और अर्द्ध ज्ञान अहंकारी के कक्ष का विवरण उसे दिया। जूली ने कैप्टन को वही पहुंचने का इशारा किया। अर्द्ध ज्ञान अहंकारी को महाप्रेतों द्वारा दिए गए विवरण से कुछ कुछ आभास हो चुका था कि आज उसपर बड़ा खतरा मंडरा रहा है। अर्द्ध ज्ञान अहंकारी ने समीप बैठे योशिनोरी को सचेत रहने के लिए कहा। अत्यंत सूक्ष्म रूप में कैप्टन व जूली योशिनोरी के करीब पहुंच चुके थे। जूली ने कैप्टन को थम्स अप का इशारा किया। कैप्टन ने भी थम्स अप किया और योशिनोरी के सिर पर जाकर बैठ गया। अणिमा व लघिमा सिद्धि के उपयोग के कारण जूली व कैप्टन अत्यंत सूक्ष्म व भार रहित तो थे ही। जूली ने अपने दाहिने हाथ का अंगूठा योशिनोरी के हाथ से स्पर्श कराया और कैप्टन ने मन ही मन पासवर्ड का उच्चारण किया। देखते ही देखते योशिनोरी पत्थर का हो गया। अर्द्ध ज्ञान अहंकारी की दृष्टि जैसे ही योशिनोरी पर पड़ी वह उसे पत्थर का बना देखकर घबरा गया। उसने मंत्र जाग्रत करते हुए कहा - " जो भी छिपकर हम पर वार कर रहा है वह जलकर भस्म होने के लिए तैयार हो जाये।"
(जारी...)
यह कहते हुए उसने मांत्रिक प्रहार किया। पूरे कमरे में अग्नि की ज्वालाएं भभक उठी। जूली ने तर्जनी का इशारा किया और कैप्टन के मन ही मन पासवर्ड का उच्चारण करने के साथ ही अग्नि जल में परिवर्तित हो गयी। जल की तेज धारा के प्रवाह में अर्द्धज्ञान अहंकारी कक्ष से बाहर बह निकला। वह जोर जोर से "बचाओ बचाओ" चिल्लाने लगा। कैप्टन व जूली वहां से निकल कर महाराज व महारानी सहित पत्थर बने इंद्रसिंह की तलाश करने में जुट गए। वे एक कक्ष से दूसरे व दूसरे कक्ष से तीसरे की ओर बढ़े। तीसरे कक्ष पर अर्द्धज्ञान अहंकारी का एक बलशाली चेला पहरा दे रहा था। उसके पैरों के समीप पहुंच कर मध्यमा ऊंगली का स्पर्श करते हुए जूली ने दाहिने हाथ की मध्यमा ऊंगली का इशारा कैप्टन को किया । कैप्टन द्वारा पासवर्ड का मन ही मन उच्चारण करते ही वह बलशाली चेला चूहा बन गया। यह देखकर कैप्टन उसके पीछे भाग लिया। इधर जूली ने तीसरे कमरे के द्वार धीरे से खोले। कमरे में तीन पत्थर की प्रतिमाएं दिखाई दी। इतने में कैप्टन उस चूहे को ठिकाने लगाकर वहां आ पहुंचा। जूली ने दाहिने हाथ की कनिष्ठिका का स्पर्श एक एक कर तीनों प्रतिमाओं को कराया और कैप्टन ने तीन बार पासवर्ड का उच्चारण किया। दोनों थोड़ा पीछे हटकर खड़े हो गए। पत्थर की परत धीरे-धीरे चूरा होकर गिरने लगी। जूली व कैप्टन अपने मूल स्वरूप में वापस आकर यह सब देख रहे थे। पत्थर के आवरण के पूरी तरह झड़ जाने पर महाराज शशिकांत, महारानी गिरिनंदिनी व सेना प्रमुख इंद्र सिंह मानव रूप में दिखाई दिए। थोड़ी देर असमंजस में रहने के बाद तीनों की दृष्टि सामने खड़े जूली व कैप्टन पर पड़ी। महारानी गिरिनंदिनी ने आगे बढ़कर दोनों को गले से लगा लिया। मां का स्पर्श पाते ही जूली की आंखों से अश्रुधारा बह निकली। महारानी गिरिनंदिनी पुत्री के स्पर्श को पाकर मानो उन्मत्त हो उठी। जूली का चेहरा अपनी हथेलियों से स्पर्श करते हुए बोली - '' तुम मेरी जूली ही हो ना... मेरी लाडली जूली.... हिमगिरि की राजकुमारी ज्वाला... है ना... बोलो ना मेरी पुत्री.... जल्दी बोलो... मेरा ह्रदय कहीं फट न जाए।। '' जूली ने कसकर मां को गले लगाते हुए कहा - '' हाँ मां मैं आपकी लाडली जूली ही हूं। '' और यह कहकर रो पड़ी। महारानी ने यह सुनते ही असंख्य चुम्बन जूली के गालों पर चिपका दिए। मानो वर्षों का ममत्व इसी क्षण लुटा देना चाहती थीं। पीछे से आकर महाराज शशिकांत ने महारानी गिरिनंदिनी के कंधों पर हाथ रखते हुए कहा - '' एक बार हमें भी हमारी लाडली को गले लगा लेने दीजिए महारानी। '' महाराज के यह कहते ही महारानी को वर्तमान परिस्थिति का आभास हुआ।
महारानी गिरिनंदिनी ने जूली का हाथ महाराज के हाथ में देते हुए कहा - '' मेरी बच्ची ये आपके यशस्वी पिताजी महाराज हैं। '' जूली ने पिताजी महाराज के मुख की ओर निहारा। पिता के स्नेह रूपी अश्रुओं से लबरेज नयनों में जूली का नन्हां सा ह्रदय डूबने लगा। वह जितना जोर से उच्चारण कर सकती थी उससे भी अधिक जोर से '' पिताजी महाराज '' कहकर उनसे लिपट गयी। महाराज शशिकांत गोद में लेकर पुत्री को बार बार पुचकारते और गले से लगा लेते। सेना प्रमुख इंद्र सिंह ने भी आगे बढ़कर जूली को दुलारा। इसी बीच कैप्टन को किसी के उस ओर आने का आभास हुआ। कैप्टन ने सभी को सचेत किया। जूली ने मिशन सत्यमेव जयते के अंतिम चरण को अंजाम देने के लिए दाहिने हाथ की अपनी अनामिका ऊंगली को स्वयं के भाल से स्पर्श किया और कैप्टन ने मन ही मन पासवर्ड का उच्चारण किया। जूली ने कैप्टन जैसा ब्लैक लैब्रा का रूप धारण कर लिया और जूली के रूप परिवर्तित करते ही कैप्टन ने जूली का छद्म रूप धारण कर लिया। महाराज, महारानी व इंद्रसिंह कुछ समझ पाते इससे पूर्व ही अर्द्धज्ञान अहंकारी ने भयंकर हुंकार के साथ कक्ष में प्रवेश किया और जूली बने कैप्टन की ओर झपटा - '' ओह तो यह सब तेरा करा धरा है छछूंदरी। आज यहीं तेरी बलि देकर सारा खेल ही खत्म किए देता हूं। '' यह कहकर ज्यों ही अर्द्धज्ञान अहंकारी ने जूली बने कैप्टन की गर्दन जकड़नी चाही वैसे ही कैप्टन बनी जूली ने झपट्टा मार कर उसे हाथ पर जोरों से दांत गढ़ा दिए। इस प्रहार से वह और भी दुर्दांत हो उठा। वह महाराज व महारानी की ओर लपका पर सेना प्रमुख इंद्र सिंह ने एक जोरदार घूसा उसकी नाक पर दे मारा। उसकी नाक से खून बहने लगा। वह वहीं बैठकर तांत्रिक शक्तियों का आह्वान करने के लिए क्रिया की अलख जगाने का प्रयास करने लगा तभी जूली बने कैप्टन ने अपना अस्थिमाल सामने कर दिया। अघोरियों का अस्थिमाल देखते ही वह घबरा गया और भागने का प्रयास करने लगा किंतु कैप्टन बनी जूली ने कक्ष का द्वार बंद कर दिया और अपने वास्तविक स्वरूप में आ गयी। अर्द्धज्ञान अहंकारी दो दो जूली देखकर चकरा गया। जमीन पर लेटकर करतब करने लगा - मुझे माफ कर दीजिए महाराज शशिकांत.... मैं भविष्य में किसी के साथ छल कपट नहीं करूंगा। '' यह कहते हुए वह महाराज के चरणों के समीप पहुंचा और बहुत फुर्ती से खड़े होते हुए उसने महाराज का गला दबोच लिया और बोला - '' असली राजकुमारी कौन सी है? शीघ्र सामने आओ अन्यथा मैं यहीं इस समय महाराज शशिकांत के प्राणों का अंत कर दूंगा। बाहर मेरे हजारों चेले तुम्हारे रक्त का पान करने के लिए उत्सुक हैं। '' उसकी धमकी सुनकर महारानी गिरिनंदिनी अत्यंत भावुक हो कर विलाप करने लगी पर जूली तनिक भी विचलित हुए बगैर बोली - '' ओ दुष्ट मैं ही वास्तविक राजकुमारी ज्वाला हूं। आ मेरे हाथ लगाकर दिखा। मैं आज यहीं तेरा अंत करूंगी। '' जूली की चुनौती पर ज्यों ही अर्द्धज्ञान अहंकारी महाराज शशिकांत को छोड़कर जूली की ओर झपटा जूली ने फुर्ती से दाहिने हाथ का अंगूठा उसे स्पर्श करा दिया और कैप्टन ने उतनी ही फुर्ती से पासवर्ड का मन ही मन उच्चारण कर दिया। अर्द्धज्ञान अहंकारी पत्थर की मूर्ति में तत्काल परिणत हो गया। कैप्टन भी अपने वास्तविक स्वरूप में आ गया। सभी ने राहत की सांस ली और उस कक्ष से बाहर निकले। सामने से आते हुए शख्स को देखकर सेना प्रमुख इंद्र सिंह के मुख पर मुस्कान छा गयी और उसने भी दौड़ते हुए आकर पहले महाराज, महारानी व नन्हीं राजकुमारी का अभिवादन फिर उनके चरणों में झुक गया। इंद्रसिंह ने झुककर उसे गले से लगा लिया। यह रणबीर सिंह था। रणबीर सिंह ने इसके पश्चात महाराज शशिकांत को सूचित किया कि अर्द्धज्ञान अहंकारी के सभी चेलों को उसने अत्याधुनिक हथियारों का प्रयोग कर मौत के घाट उतार दिया है। यह सब गुरूदेव द्वारा स्थापित कॉटेज के शस्त्रागार के हथियारों द्वारा ही संभव हो पाया था। गुरूदेव ने नन्हीं राजकुमारी व कैप्टन के मिशन सत्यमेव जयते पर निकलते ही मुझे सूचित कर दिया था और मैंने अपनी युद्धनीति का समुचित प्रयोग कर यह कार्य कर डाला। महाराज व महारानी ने रणबीर सिंह की भूरि भूरि प्रशंसा की तो पिता इंद्र सिंह की छाती गर्व से चौड़ी हो गयी। जूली व कैप्टन ने हाथ मिलाकर रणबीर सिंह का शुक्रिया अदा किया।
कैप्टन ने महिमा सिद्धि का प्रयोग कर स्वयं को असीमित रूप से बड़ा कर लिया। उस पर सवार होकर सभी हिमगिरि राज्य पहुंचे। सीमा पर स्थित मंदिर के बाहर अनेकों सैनिक जो इंद्रसिंह के साथ महाराज शशिकांत व महारानी गिरिनंदिनी को छुड़ाने के क्रम में अर्द्धज्ञान अहंकारी के श्रापवश पत्थर हो गये थे उन्हें जूली व कैप्टन ने मिलकर वापस मानव रूप प्रदान किया। कैप्टन ने मिशन सत्यमेव जयते की समय-सीमा पर ध्यान दिया तो तेरह घंटे अभी भी शेष थे अर्थात ग्यारह घंटे में ही अर्द्धज्ञान अहंकारी के षड्यंत्रकारी साम्राज्य के उन्होंने परखच्चे उड़ा दिए थे। कुछ दिन पश्चात श्री रामेश्वरम से दादी मां के साथ गुरूदेव व मेजर का आगमन हिमगिरि राज्य में हुआ। नगर के मुख्य चौक पर दो पत्थर की मूर्ति देखकर वह चौंके। यह मूर्तियां अर्द्धज्ञान अहंकारी व योशिनोरी थे। नीचे बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था - '' विद्या का सदुपयोग आपको मानव से भगवान बना देता है और दुरूपयोग पत्थर। '' राजभवन पहुंचने पर महाराज व महारानी ने उन दोनों के चरण स्पर्श किए और जूली गुरूदेव का अभिवादन करने के पश्चात दादी मां के गले लगकर बहुत देर तक अपने व कैप्टन के किस्से सुनाती रही। महारानी गिरिनंदिनी ने बहुत प्यार से मेजर को दुलारा। दादी मां ने रात्रिभोज के पश्चात सभी को राजभवन के मुख्य कक्ष में बुलाया और बोली - '' महारानी गिरिनंदिनी अब हमारी राजकुमारी ज्वाला समझदार हो चुकी हैं। मैं चाहती हूं कि उसकी दिव्य शक्तियों को संचालित करने वाला पासवर्ड से आज उसे तुम अवगत करा दो। '' महारानी गिरिनंदिनी मुस्कुराते हुए बोली - '' माता जी मुझे तो अब वह कूटशब्द याद भी नहीं है। मेजर तुम ही बता दो। '' मेजर शैतानी भरी मुस्कान के साथ बोला - '' महारानी कैप्टन को वह पासवर्ड बताकर मैं स्वयं ही भूल गया। अब कैप्टन ही बता पायेगा। '' कैप्टन चुपचाप सब सुन रहा था। वह एकाएक खड़ा हुआ और जूली के कान के पास जाकर धीरे से मधुर वाणी में बोला - '' आई लव यू जूली। ''
(पूर्ण)
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